शनिवार, 25 अप्रैल 2009

त्रासदी भरी एक रात...


ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं- ओह ! मैने फिर से सिर पकड़ लिया और बड़े बेमन से फोन उठाया। ''क्‍या है'' ? सामने से किसी एक चाहने वाले के वही चिंता भरे शब्‍द जो पिछले आधे घंटे से सुन रही थी, ''कहां पहुंची, दिल्‍ली में तो नहीं है अगर नोएडा है, तो वहीं रूक मैं लेने आता हूं, या ऐसा कर मेरे घर चली जा' मैने इस बार कोई जवाब नहीं दिया, बस चुप, निरुत्‍तर एक अजीब सी हंसी के साथ फोन रख दिया। हंसी शायद कुछ ज्‍यादा ही अजीब थी इसलिए बस में खड़े सभी लोग मुझे अजीब नजर से देखने लगे। अब ये ना पूछिएगा कि वो अजीब नजर कैसी थी, क्‍योंकि जनाब जवाब में मैं फिर वही अजीब हंसी बिखेर दूंगी। इस अजीब- अजीब को समझने के चक्‍कर में आप भी अजीब चक्‍कर में फंस जाएंगे। 13 सितंबर 2008 को ऑफिस से फोन आने का जो सिलसिला शुरु हुआ वो दो दिन बाद तक उसी तरह चलता रहा। खैर, मैं उस रात मैं 8.40 पर जा पहुंची बाराखम्‍बा, ठीक वहीं जहां ब्‍लास्‍ट हुआ था। पहुंचने से पहले मन में एक टीस थी जो निरंतर रुआंसी को उत्‍पन्‍न कर देती और मैं टपकने से पहले ही खारे आसुंओं का घूंट भर लेती। जब बस से उतरी तो चारों ओर वही 'अजीब' सी चहल पहल। लड़के-लड़की का एक जोड़ा उस भीड से निकलकर आ रहा था, जिनहें देखकर ऐसा लगा मानों सिनेमाघर में कोई शो अभी खत्‍म ही हुआ हो.... यह भी कुछ अजीब ही लगा। मन में उठ रहे कई सवालों के साथ मेरा एक-एक कदम दस-दस मन का हो चला था, हाथ न जाने क्‍यों बार-बार बालों में जा रहे थे और होंठ दांत के नीचे। 30-40 कदमों की यह दूरी आखिरकार खत्‍म हो ही गई और मैनें खुद को पाया संवेदनाओं के एक अथाह समुंद्र के सम्‍मुख जिसे बिना किसी नाव और पाथेह के मुझे पार उतरना था।
ठीक सुलभ शौचालय के सामने बीच में कुछ जगह खाली छोड़ चारों ओर इंसानों की झड़ी सी लगी थी, कुछ नौटंकी करने वाले अपने कैमरों के साथ शौचालय के छतनुमा मंच पर जा विराजमान थे और निरंतर अपनी अभिनय कला को उभारने में लगे थे। मैं उनके अभिनय के गुर सीख रही थी कि सहसा कानों में किसी की गर्म शीशे सी आवाज ने दस्‍तक दी 'यह त्रासदी...' किसी संवाददाता की आवाज थी शायद। आगे उस आवाज ने क्‍या कहा मैने नहीं सुना.... मेरे कानों ने जो शब्‍द देखा वो था 'त्रासदी' फिर क्‍या था कानो देखा सच कहां होता है ? सो आंखों ने भी उसे तलाशना शुरु कर दिया। मैने देखा वहां एक नहीं कई त्रासदियां पसरी पड़ी थी, गहरी नींद में... जिनकी किसी को भनक भी न थी।
कोई हाई-फाई से दिखने वाले फोटोग्राफर साहब आकर कहते हैं ' साले... छोटे छोटे पटाखे छोड़कर हमें परेशान करते हैं... करना ही है तो कुछ बडा करो'। और इसी के साथ मेरी नजर आकर टिक गई इस नई त्रासदी पर। जाहिर है उन जनाब को वहां खून से लथपथ लाशें और रोत बिलखते गरीब चेहरे नहीं मिले, जिनकी तस्‍वीर उतारकर वे पैसे बना पाते। जरा मुंह घुमाया नहीं कि एक और त्रासदी मेरा रास्‍ता रोके खड़ी थी। तीन पुलिस वाले सबके नाम बताना कुछ सही नहीं लगता पर हां एक जनाब जो बहुत ज्‍यादा बोल रहे थे उनकी राशी से वे सिंह थे और बातों न जाने क्‍या थे। तीखी और ऊंची आवाज में उसने कहा 'बहन चो...कहते हैं एक घंटा लेट है पुलिस अब पुलिस क्‍या करे जब पता चला तो चले आए...। इतने पैसे नहीं देते जितने सवाल पूछते हैं, जिसे देखो हमारी ही कॉलर के ऊपर लपकता है'। फिर पता नहीं कितनी बार उसने मीडिया वालों की मां-बहन एक कर दी।
मन खट्टा हो गया, मानों इमली खा ली हो... नहीं, नहीं मानो खाने के बाद मिर्च वाली खट्टी डकार, ओह ! सोचा अब तो मैट्रो से घर की राह ली जाए, पर क्‍या जनाती थी कि आगे एक और त्रासदी टकटकी लगाए मेरी राह देख रही है। जनाब किसी बड़े अखबार के पत्रकारों का गुट खड़ा था नाम नहीं जानती कि कौन कौन थे, पर हां, वो जरूर सुना जो वे बतिया रहे थे 'जरा सोचो... क्‍या होगा हमारे देश का जहां पुलिस के पास निशान लगाने के लिए चॉक न हो, फुटपाथ के पत्‍थरों से जो बाउंड्री लाइन बनाए वहां आतंक से कैसे रुक सकता है।' उनकी बातों में कोई मजेदार त्रासदी नहीं दिखी तो सोचा पैदल पैदल ही निकला जाए.... कि अचानक मैं एक बच्‍चे से टकरा गई, बड़ी फैली आंखें डबडबाई सी, पतले और सिकुडे होंठ... मुस्‍कुरा रहे थे। उसने हाथों में गुब्‍बारे पकड़ रखे थे। अरे, ये तो एक और त्रासदी आ चिपकी मुझसे...। मैने उसे हटाना चाहा पर वो बच्‍चा आज अचानक ही लाइम लाइट मे आ गया – क्‍यों ? अरे भाई त्रासदी की वजह से। छोटी सी उम्र में गुब्‍बारे बेचता है, न जाने क्‍या कारण रहा होगा इसका ? पर इस बारे में सोचने का वक्‍त किसके पास है। यहां तो सभी ' सबसे आगे, सबसे तेज' और 'खबर हर कीमत पर' जुटाने में लगे हैं। सो, कई काले मुंह वाले डिब्‍बों को उस नन्‍हीं सी त्रासदी पर फोकस कर दिया गया, और कान मरोड़े चमगादड़ उसके मुंह के आगे अड़ा दिया, बेचारा बोलता रहा। करता भी क्‍या, आज तो दिन ही त्रासदी का था। मैं कुछ ज्‍यादा ही संवेदनशील हूं, मन भर आया तो वहां से पैर पटककर चल दी।
अब मुझे कानों से देखे शब्‍द 'त्रासदी' पर विश्वास हो आया था, पर यह त्रासदी तो भयानक भूत सी हर जगह मेरे सामने आकर खड़ी होती। जब मीडिया के चीचड़ उस नन्‍हे बच्‍चे से बातों में चिपक रहे थे तभी पुलिस के कोई बड़े अधिकारी वहां आ गए और छिपकर पीछे जा खड़े हुए। थोड़ी देर में जनाब चलते बने। हो गया उनका निरीक्षण पूरा। उम्‍ह...
मैने फिर पैर पटके और वापस चली ही थी कि दो ट्रैफिक पुलिस रॉंग साइड बिना हैलमैट चले आ रहे थे और जहां मुड़ना मना था वे शहंशाह उसी राह से चल दिए। एक ही घंटे में अचानक से इतनी सारी त्रासदियों का सामना करने के लिए मैं तैयार न थी। सो सिर गढाकर वहीं फुटपाथ पर बैठ गई, कि अचानक से एक अजनबी त्रासदी ने दस्‍तक दी। कंधे पर हाथ रखा और कहा... 'ग्राहक नहीं मिला क्‍या? कोई बात नहीं, बता कितने लेगी...? मैने सिर उठाकर देखा तो एक सभ्‍य से पुरुश मेरी ओर लार भरी निगाह के साथ लपलपा रहे थे। कोई उत्‍तर ना पाकर उन्‍होने कहा, 500 रूपए ले लेना, पर सुन जरा जल्‍दी चल ना...। मेरे मन में एक तेज घृणा उत्‍पन्‍न हो आई उस सभ्‍य पुरुश के लिए, उसकी अतृप्‍त भूख के लिए, उसके लार टपकाते अंगों के लिए जो बिना वक्‍त जाने कहीं भी उत्‍सुक हो उठते हैं।
मैं उठी तो, यह त्रासदी कुछ देर तक पीछे आती रही। अब मेरे लिए इतने बोझ के साथ चलना मु‍‍श्किल हो रहा था, कि अचानक बस आई और मैं उसमें जा बैठी। बस में भी कई त्रा‍सदियां डंडे पकड़े खड़ी थी, सभी की निगाहें देर रात अकेली लड़की पर थी, मुझे लगा समाचारों में जिस दिल्‍ली के दुखी होने की बात की जा रही है वह दिल्‍ली तो कहीं और है यह तो नहीं हो सकती। बस में तेजी से गाने की ध्‍वनि रह रह कर छू जाती... 'दुनिया गई तेल लेने...' मैनें आंखें बंद कर ली।
दरअसल, सच तो यह था कि किसी को इन धमाकों से कोई सरोकार न था, सभी अपनी अपनी त्रासदियों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। लगता है कि इस शहर में आदमी तो है ही नहीं, जीवन, भावनाएं, संवेदनाएं सभी बाजारों के बड़े शो-रूमों के शोकेसों में बंद हैं, जिन्‍हें गाहे-बगाहे नुमाइश के लिए खोल दिया जाता है। असल में तो यहां रहने वाला हर शरीर एक त्रासदी की सांस भरता है। जो अक्‍सर छूट कर अखबारों की सुर्खियों में परस जाती हैं...

अनीता शर्मा

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

बहकही न इहीं बहिनापूरी


हाय राम ये क्या हुआ! एक और बलात्कार। न जाने ये आदमी इतने भूखे क्युं होते जा रहे हैं कि अपनी औलाद तक को नहीं बक्षते। कई बार तो इनकी निक्कर से टपकती दर्जनों-लिटर लार को देखकर मैं भी घबरा जाती हूं कि कहीं मैं ही तो इनका अगला षिकार नहीं और मैं हूं भी तो एकदम दुबली पतली। एक बार हाथ पकडा और चल मेरे भाई, या अल्लाह ये मेरे मुह से कैसे निकला। ये लोग भाई कैसे हो सकते हैं ये तो कसाई होते हैं...

जो हर लडकी को बहन बनाकर उसकी इज्जत को इस कदर संभाल कर अपने पास रखतें हैं कि दूबारा वह खोने का डर ही न रहे और लडकी षांती से घूम सके. याद है मुझे ‘बिहारी’ का एक दोहा-
‘बहकही न इहीं बहिनापूरी...
...ज्यों चील घोंसला मांस’

मतलब इन लोगों के बहन बहन कहने पर मत जाना इनका बहन कहना उतना ही सुरक्षित है जितना कि चील के घोंसले में मांस होता है। आज अगर बिहारी जी यहां होते, तो मैं उनके चरणो में गिर जाती कि आप इतने विद्वान है, तो जरा हमें यह भी बता दीजिए कि इन बिना बडे दांतों वाले ड्रेकुलाओं को इतनी भीड में हम भला पहचाने तो कैसे ?

हर शाम एक डर के साथ आफिस से बाहर निकलकर बस में बैढ जाती हूं, पर एक डर न जाने क्युं बिन बुलाए पीछे पीछे आता रहता है। क्या करूं बेषर्म जो ठहरा, कितनी बार उसे धमकाया है कि मेरे पीछे न आए, पर वो कम्बख्त है कि उस पर जूं भी नहीं रेंगती।

खैर ये सोचकर सब्र कर लेती हूं कि डर तो मेरे साथ है अकेले होने से अच्छा किसी को साथ लेकर ही चलो। उस डर के पीछे सहमी सी जो औरत आपको आती नजर आ रही है न वो कोेई और नहीं मेरी अपनी लज्जा है पर क्या करूं इस कम्बख्त डर ने उसे पीछे छोड दिया। न जाने ये नंग्गे भूगे आदमी इस औरत का क्या करेंगे। वह रह भी तो पीछे जाती है न।

खैर मैं तो चलती जाती हूं चाहे किसी भले आदमी को भी गाली देनी पडे मैं राह में सब करती जाती हूं। और मेरी बेषर्म लज्जा मुंह लटकाए पीछे पीछे चुपचाप चलती रहती है वैसे भी उसे चुप रहने को ही कहा है मैनें उसी की वजह से इस डर ने मेरा पीछा करना जो षुरू कर दिया है अगर वो न होती तो मुझे किसी से डरने की क्या जरूरत पर वो है कि मेरे पीछे पडी रहती है कि मैं एक लडकी हूं इसलिए मेरे साथ उसका होना जरूरी है। कई बार सोचती हूं कि यह लज्जा अगर हम लडकियों कि जगह लडको का गहना होती तो षायद ये सारी नोबते आती ही नहीं और मुझ जैसे न जाने कितनी ही लडकियों को बेमन से अपने पीछे आते डर को सहना न पडता।

अनीता शर्मा

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

सफीक का हुनर मानों उधार का पैसा


क्या आप ने कभी दीवार से हार्न बजाने की आवाज सुनी है या फिर कभी आप के कांवकांव करने पर आसमान में कौवे इकट्ठे हुए हैं. आप सोच रहे होंगे कि यह सिर्फ फिल्मों में होता है, पर यकीन मानिए एक ऐसा शख्स है, जो यह सब कर सकता है. पर किसी हिन्दी फिल्म का हीरो नहीं है, वह है बनारस के दूल्हेपुर गांव में दुपट्टे रंगने वाला सफीक रंगरेज.
सफीक 80-90 तरह की आवाजें अपने मुंह से निकाल सकता है. चाहे गाय, बकरी, मोर, घुंगरु, गाड़ी का हार्न, हैलिकोप्टर, रेल, आरकैस्ट्रा के ड्रम की आवाज हो या फिर सालों से बेकार पड़े किसी टेप की वह इतनी सफाई से सारी आवाजें निकालता है कि बस पूछिए मत. लेकिन इतने अच्छे हुनर के होते भी सफीक गरीबी में जी रहा है. बनारस का नाम ऊंचा करने की उस की इच्छा को सरकार ने अनसुना कर दिया है. वैसे भी भारत में कहां किसी गरीब को अपने हुनर के सहारे बढऩे का अधिकार है. गरीबों का बस एक ही काम है यहां, अपने दोनों हाथों के इस्तेमाल से दो जून की रोटी कमाना.
पिछले 8 सालों से सफीक रंगरेज अपने इस हुनर के बल पर लोगों को हंसाने के साथसाथ हैरान कर देता है. दातों तले उंगली ला देने वाले इस हुनर के लिए सफीक ने कोई कड़ी मेहनत नहीं की है. सफीक का कहना है '8 साल पहले मैं सुबह अपने काम पर जा रहा था कि अचानक मेरे कानों में चिडिय़ा की आवाज पड़ी. मैं ने मस्ती के लिए उसे कापी करना चाहा. इस के बाद तो जो हुआ उस पर मैं खुद हैरान हो गया. मुझे लगा शायद मैं बीमार हो गया हूं.Ó वहां से काम पर जाने की बजाए सफीक वापस घर आ गया और घर पर सभी को उस ने चिडिय़ा की आवाज अपने मुंह से निकाल कर सुनाई. घर के सभी लोगों ने भी उस से यही सवाल पूछा 'तेरी तबियत तो ठीक है न?Ó सफीक को अंदाजा हो आया था कि उसकी जिंदगी अब नया मोडï लेने वाली है.
इस के बाद तो सफीक की जिंदगी ने मानों चिडिय़ा से पर उधार ले लिए हों... उस ने कई तरह की आवाजे निकालनी शुरु कर दी. एक छोटा सा रंगरेज जिला स्तर तक कार्यक्रम देने लगा. जहां जाता लोग उसे खासा पसंद करते, लेकिन उधार के परों पर ज्यादा लंबी उड़ान नहीं भरी जा सकती. जितने शो उस ने करे उन में सिर्फ 20 फीसदी का ही उसे पैसा मिला और जितना मिला उसे देखकर कोई भी कलाकार निराश होता. कुछ इसी तरह से अमीर लोगों ने सहायता के नाम पर उस का खूब लाभ उठाया. फिर भी सफीक अपने हुनर से कमाना चाहता था.
वह अपने हुनर के सहारे न्यूज टीवी तक तो जा पहुंचा, लेकिन आगे का रास्ता उसकी भूखी गरीबी खा गई. विदेशों में तो लोग अपने किसी हुनर पर मश्हूर हो जाते हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे देश में हुनर की कद्र नहीं होती, होती है, लेकिन वह किसी पैसे वाले के पास हो तब. कोई गरीब अगर अपने हुनर के बल पर कमाना चाहे, तो उसे मिलते हैं धक्के और भूखा पेट. यह बात सफीक के जीवन से साबित होती है.
सफीक दिन में 200 रुपए कमाता है, जिन में से 100 रुपए वह काम पर और 100 रुपए घर पर देता है, जिन से 10 लोगों का पेट पाला जाता है. उस का सपना अमिताभ बच्चन से मिलने का नहीं है वह चाहता है कि उस के हुनर को देख कर खुद जानी लीवर उस से मिलने आएं.
सालों पहले ही पढ़ाई छोड़ चुका सफीक अपने हुनर की बदौलत बनारस का नाम आगे बढ़ाना चाहता है. इस के लिए वह बनारस सरकार तक से मदद की गुहार लगा चुका है, लेकिन सरकार की नींद बहुत गहरी है उस में तनिक भी बाधा न आई. सरकार की तरफ से उसे किसी तरह का कोई सहयोग नहीं मिला, तो सफीक ने अपने दम पर कोशिशें करनी शुरु कर दीं.
वह मुंबई पहुंच गया इस उम्मीद से कि वहां जरूर कोई उस के हुनर को पहचानेगा और वह अपने जीवन की सारी परेशानियों से नजात पा लेगा. सफीक का कहना है कि सभी को उस का काम पसंद आया, लेकिन किसी ने भी उसे काम करने का मौका नहीं दिया, क्योंकि उसे पास आर्टिस्ट कार्ड नहीं था, जिसे बनावाने में लगभग 10,000 रुपए का खर्च आता, जो कि सफीक के पास नहीं थे.
फिर भी सफीक मेहनत से नजर नहीं चुराता और वह लगातार कोशिशें कर रहा है. हाल में चुनाव के दौरान उसे लखनऊ में कुछ नया काम मिला है, जिस में वह नेताओं के लिए प्रदर्शन करेगा. अब सफीक को यह बात समझ आ गई है उसे अपने हुनर को सब के सामने लाने के लिए सरकार की आस छोड़ खुद ही प्रयास करने होंगे. सफीक को भी यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी होगी कि उस का हुनर उधार के पैसे जैसा ही है, जिस से लाभ पाने के लिए उसे खासी मश्क्कत करनी होगी.
(यह लेख सरस सलील में छप चुका है, लेकिन काफी बातें जगह की कमी के कारण काट दी गई।)

(अनिता शर्मा)

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

मेरे गुन-ओगुन गिनों न गोपीनाथ

बस के बारे में मै तो बस इतना ही कहता हूं
किजे चित सोई रहे निज पतितन के साथ मेरे गुनओगुन गिनों न गोपीनाथ
(ब्लू-घोस्ट) मै तो नित यही प्राथना करता हुं किः-
हे! संहारक मेरी रक्षा करना। बचपन से हमें पढाया और समझाया गया कि जीवन का स्वामी उपरवाला है और आज मुझे इस बात का सही मतलब समझ में आया है, आखिर जो गाड़ी आपके उपर से निकलेगी वही तो प्राणो की स्वामिनी होगी। तो हुई ना जान उपरवाले (ब्लूलाइन बस के ड्राइवर) के हाथ में, और साथ ही साथ पैरों में भी कि अगर सही वक्त पर ये ब्रेक नहीं दबाएंगे तो मेरे प्राण पखेरू इस तरह उडेंगें के जैसे उन्हें मेंरा शरीर रूपी पिंजरें में से किसी के पसीने वाले जूतो सी बू आ रही हो और वह खुलें भी पहली बार हो।
कहीं ब्रेक की जगह पर एक्सीलेटर दब गया तो मेरे प्राण उडेगें नहीं बल्कि उनके टायर रूपी कडों में एक और नग की तरह जड जाएंगें। मैं जब भी घर से निकलता हूं तो मेरी यही प्रार्थना होती है कि ऐ परमात्मा इन तेज दौडती इश्वरीयषक्ति वाली वाले ‘‘ मौत के फरिश्तों’’ की एक दूसरे को अधिक से अधिक खून पीने के लिए उत्साहित करती पी-पी की तेज आवाज में अगर मेेरी ये दबी सी आवाज़ सुन पा रहे हो तो मेरा सामना किसी ब्लूलाइन बस से मत करवाना हे! दीनानाथ मेरे मन में भूल से भी कभी किसी ब्लू लाइन बस को ओवरटेक करने का आत्मघाती विचार ना आए और अगर कहीं मै गलती से उन्हें ओवरटेक कर भी जाउ तो तुम उनके दिमाग को ठंडा ही रखना, उनके दिल में प्रतिशोध की भावना का बीज पनपने ना देना, उनके मन का ऐसा विचार मेरे लिए जानलेवा साबित हो सकता है। इस कलयुग मे यह बस के ड्राइवर संसार को सच्चाई का आभास दिलाते रहते है कि भगवान और मौत को कभी नहीं भूलना चाहिए।
पानी मे रहकर मगरमच्छ से बैर अच्छा नहीं, मुझे अभी जीना है। इसलिए सड़क पर चलते हुए मै इनकी इस धमकी को कभी न भूलुगां ‘‘करपा उचित दूरी बनाए रखें’’अन्यथा हमें दोष न दें। वैसे भी इन्होने यह घोषणा कर रखी है कि ‘‘या तो यूं ही चालेगी’’। देख लो भाईजान अगर जान प्यारी है तो इनकी बात मान लों नहीं तो भुल जाओ के जान नाम की भी कोई चिडीया होती भी है। अगर हालात ऐसे ही रहे तो दिल्ली की सड़कों पर होर्डिंग टंगे नजर आएंगे ‘प्लीज कीप अवे फ्रोम ब्लूलाइन बसेज़, एंड सेव योर लाइफ’। ये सोचता हूं कि अगर अरस्तु आज जिंदा होते तो ‘राज्य एक आवश्यक बुराई है ’ वाली अपनी बात को ‘ दिल्ली वालों की मजबूरी है, अभी ब्लूलाइन ज़रूरी है।’ कर लेते शायद आज के संदर्भ में ज्यादा सटीक होती।
भारत मल्होत्रा का यह लेख उन्होंने करीब महीनो पहले लिखा था, किसी अखबार में तो नहीं छप पाया, लेकिन प्रांसगिक आज भी उतना ही है जितना तब था . भारत वर्तमान में क्रिकखबर डाट काम www.crickhabar.com से जुड़े हैं, आप अगर उनसे संपर्क करना चाहें तो उनकी इमेल आईडी है- bharatmalhotra83/gmail.कॉम इसके अलावा उनका ब्लाग भी है जहां आप उनकी अन्य रचनायें kucchbaten।blogspot.com bharatmalhotra-bhanu.blogspot. कॉम देख सकते हैं।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

कंप्यूटर से मुझे बचाओ

कंप्यूटर... ओह, यह शब्द सुनते ही मैं झल्ला जाती हूं। एक ऐसा नाम, जो मेरी जिंदगी में खासी अहमियम रखता है, लेकिन फिर भी मैं इस नाम से चिढ़ती हूं. जनाब, अब ये न पूछ बैठिएगा कि इतनी अच्छी चीज से मैं भला क्यों चिढ़ती हूं ? क्योंकि मैं इस का कोई कारगर जवाब न बना सकूंगी.
मेरे कंप्यूटर से चिढ़ने की कई वजहें हैं, जैसे जब दिनभर की थकान के बाद रात को बिस्तर पर मैं अपने दिन का कच्चाचिट्ठा जांचने की तैयारी करती हूं, तभी अचानक किसी पोर्टल का एक ब्लैंक पेज मेरी आंखों के सामने खुल जाता है, जहां एक छोटे से बक्से में कर्सल लिपलिपाता है मानो लगातार मुझे कुछ टाइप करने को कह रहा हो. मैं घबरा जाती हूं... अब क्या करूं? सांसे तेज होती ही हैं कि सहसा मुझे याद आता है, ‘अरे, मुझे अब इस बक्से में कुछ लिखना पडे़गा, तभी तो मेरा दिमाग उस बात को सर्च कर के दिखा पाएगा। बिना किसी यूआरएल के कोई फाइल दिमाग में सर्च कहां होती है...‘इस पर मैं झल्ला जाती हूं, पर करूं भी तो क्या? अब दिमाग है कि बिना कोई शब्द या यूआरएल डाले कोई रिस्पांस ही नहीं देता.
इधर कुछ दिनों से मुझे एक नई परेशानी ने घेर लिया है। बिना शब्द डाले अगर गलती से कुछ ऐसावैसा सोचने लगती हूं, तो यकायक एक नई विंडो मेरी आंखों के सामन खुल जाती है, जिस पर लिखा होता है ‘दि पेज केन नाॅट बी ओपन‘ और मैं यह सोच कर कि मेरा दिमागी संतुलन डगमगा गया है, सोने का मन बना लेती हूं। पर मेरी ऐसी किस्मत कहां कि यह हाइटेक दिमाग मुझे निंद्रा सुख लेने की अनुमति दे दे. जनाब, पलकें बंद होती नहीं कि एक और विडो खुलती है, जिस में मेरे दिमाग में कई भयंकर वायरस होने के संकेत दिखाई देने लगते हैं. मैं सकपका जाती हूं, क्या करूं, क्या न करूं... इतने में वह विंडो अपनेआप बंद हो जाती है.
अब और क्या कहूं आप से... कल तो गलती से मैं अपने उस दोस्त के बारे में सोचने लगी जिस से हाल ही में मेरी लड़ाई हुई थी और मंै ने उसे बहुत भलाबुरा कहा था। अब जरा देखिए तो यह कंप्यूटर यहां नहीं आता. अरे, आए भी क्यों यहां मुझे उस की जरूरत जो है. इस की इन्हीं बातों पर मैं गुस्से से भर जाती हूं. ये मेरे लिए इतना भर नहीं कर सकता कि एक पल के लिए मेरे हाथों में कन्ट्रोल जेड का बटन दे दे ताकि मैं अपनी भूल सुधार सकूं.
कितनी बार सोचती हूं कि इस मतलबी कंप्यूटर को छोड़ दूं, पर यह कम्बख्त कहां मुझे छोड़ता है। दिमाग पर इस कदर हावी है कि किसी का चेहरा देख कर सोचती हूं इसे तो फोटोशाप में डाल कर थोड़ा सा कर्व कर देना चाहिए, बेचारा काले से गोरा हो जाएगा. कभी अपने चेहरे पर उभरा कोई दाना ही दिख जाए, तो दाने के भीतर का पस मन में उतर आता है कि काश, यह दाना भी फोटोशाप में जा पाता और मैं इस का सत्यानाश कर सकती. पर मन मार कर रह जाती हूं और आईने को दूर पटक देती हूं.
जब कभी कोई अजीब बातें करता है, तो मेरा मन अनायास ही कह उठता है, ‘हे भगवान, इस की प्रोग्रामिंग में इतनी गड़बड़ क्यों कर दी तुम ने।‘ इतना ही नहीं दिमाग से कोई बाद निकल जाती है, तो मैं पलभर के लिए भी दिमाग पर जोर नहीं देती. फट से सर्च फाइल का आप्शन पकड़ लेती हूं, लेकिन एक परेशानी है कि अगर दिमाग से कोई काम की फाइल डिलीेट हो जाए, तो उसका फोल्डर मुझे दोबारा नहीं मिल पाता, क्योंकि मेरे पास कोई रिसाइकिल बिन नहीं है न.
कागजकलम नाम से ही अजीब लगने लगे हैं। यही नहीं, हाथ तो कलम पकड़ना ही भूल गए हैं. सोचती हूं, अपने डिगरी भंडार में एकाध डिगरी और जोड़ लूं, पर कलम की शक्ल देखते ही जी मिचलाने लगता है और उंगलियां कीबोर्ड की दुआ मांगने लगती हैं.
अब क्या करूं ? कहां जाऊं ? यह सोचती हूं, तो फिर से एक विंडो खुल जाती है कीवर्ड की डिमांड करते हुए। इसी के साथ में अपने दिमाग का कंप्यूटर शट डाउन करने से पहले आंखे बंद कर के दिमाग में आ चुके एरर को हटाने के लिए बिना किसी एंटी वायरस के सतत प्रयासों में लग जाती हूं. इसलिए आने वाले हर नए सिस्टम से कहना चाहती हूं कि अपने दिमाग को इस कप्ंयूटर नाम के बडे़ वायरस से बचा कर रखें. यह एक ऐसा वायरस है, जिसे कोई एंटी वायरस हील नहीं कर सकता और दिमाग की हार्ड डिस्क के साथसाथ दिल का मदर बोर्ड भी खराब हो जाता है।
अनिता शर्मा

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

हंसो हंसो जल्दी हंसो

हाय, ये क्या हुआ, ये अप्रैल फूल का दिन एक बार फिर आ पहुंचा है. मेरे पल्ले से तो यह बात दूर है कि कोई आपको पागल कह कर हंसे और आप भी उस के साथ ही हंस दें। साल का एक ऐसा दिन जब आप भी मुर्ख हैं और दूसरे भी सुनने में कुछ अटपटा सा लगात है...
चलो मान लिया जाए कि साल में एक दिन ऐसा है जब सभी अपनाअपना स्वाभिमान तज कर अपने या औरों पर हंसते हैं, तो हम जिन बातों पर पहली अप्रैल को हंसते हैं, वह तो हमारे देश में रोज ही घटती हैं। नेताजी रोज कोई नया झूठ बोलते हैं, लड़के आए दिन लड़कियों को प्रपोज मारते हैं, बच्चे स्कूल से बंक मारते हैं, बेटियां माओं से बहाने बना बाहर जाती हैं या फिर चलतेचलते ऐसे ही किसी को गाले दे दी जाती है.
यह बात चाहे किसी और त्यौहार पर फिट न बैठे, लेकिन पहली अप्रैल पर सटीक बैठती है कि हमारे लिए कोई त्यौहार एक दिन का नहीं होता हम भारतीय हैं हर त्यौहार को हर दिन मानते हैं।अब जरा बताईए तो, क्या रोेज के रोज आप ‘अप्रैल फूल‘ कह कर हंसते रहेंगे ? ऐेसे भला देश का विकास कैसे होगा. विकास के तहत कीमतंे नहीं बढ़ेंगी, तो गरीबों को कैसे पता चलेगा कि देश की तरक्की हो रही है.
इस बार तो सो काल्ड त्यौहार को पूरा देश इसे मनाने वाला है. वह भी चुनाव के रूप में. इस अप्रैल को नेता चाहे कितने ही वायदे करें, जनता चाहे उन से कितना ही फायदा क्यों न उठाए, आखिर में दोनों एक दूसरे को फूल ही कहेंगे. भई कर भी क्या सकते हैं यही तो हमारे लोकतंत्र का रिवाज है और यह अगर अप्रैल माह में आन पड़ा है, तो इसे इत्तफाक ही मानिएगा कुछ और नहीं।
हमारे एक पत्रकार मित्र को ही देखिए गुजरे कल तक तो उन्हें राजनीति नाम के परिंदे से बहुत चिढ़ थी, लेकिन इस बार अप्रैल का फायदा उन्होंने भी उठाना चाहा सो कूद पड़े मैदान में और जब हाथ पैर मारने पर टिकट नहीं मिला, तो नाक मुंह घोंस कर घींघीं कर बोल उठे ‘ देखा, बनाया न सब से बड़ा ‘अप्रैल फूल‘, कोई इतना अच्छा फूल बनाने का तरीका नहीं सोच सकता‘
मेरे एक दोस्त हैं। वे हमेशा ‘अप्रैल फूल‘ का पूरा लुत्फ उठाते हैं. हैं तो वे एक नंबर के दिल फैंक, लेकिन खुद को आधुनिक मानव का तमगा दे रखा है उन्होंने. हर पहली अप्रैल को न जाने कितनी ही लडकियों को आईलवयू बोलते हैं. कोई पट जाए पता तो ठीक है, नहीं तो ‘अप्रैल फूल‘ कह खीखी कर हंस देते हैं. उन की यह बात मुझे तो तनिक भी नहीं हंसाती.
ये तो थी मजाक की बातें, पर हमारे पड़ोसी किशोर जी तो अप्रैल फूल को त्यौहार की तरह पूजते हैं। आप को जानकर शायद अचरज न होगा कि वे इस दिन को धनतेरस की तरह मनाते हैं. अरे, हंस क्या रहे हैं आप. ये जो हमारे किशोर जी हैं वे उन लोगों में शामिल हैं, जिन का धंधा लोगों को पागल बना कर उन्हें लूटना होता है यानी कि ठग. मुझे तो लगता है कि हमारे देश में जिनते भी ठग हैं सभी ने इसी दिन से अपने काम कि शुरूआत की होगी और यही उन का प्रेरण स्रोत रहा होगा.
भाई जान, खबरिया चैनलों के लिए तो यह दिन टीआरपी की चुंबक है. कितने ही चैनल इस दिन अगड़म बगड़म खबरें बना कर पूरा दिन टीआरपी बटोरते हैं. अब तो मुझे भी लगने लगा है कि इस त्यौहार को अगर सेलिब्रेट किया जाता है तो कोई गलत बात नहीं. गलती, हंसी, गुस्सा या कभी भारी खीज को दबाने के लिए इस का नाम भर काफी है. कोई भी बात हो अप्रैल माह में बस कह दीजिए ‘अप्रैल फूल‘.
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