गुरुवार, 16 जुलाई 2009

शायद शीला दिल्ली को अपना नहीं मानती


सीधे शब्दों में एक छोटी सी बात रखना चाहूंगी। गर्मी लगातार बढ़ रही है, सूरज अपनी रोषनी से लोगों को जला रहा है, लगातार बिजली की कमी के चलते कटौती हो रही है, लेकिन देखने वाली बात यह है कि कितनी बिजली हम स्ट्रीट लाइट या रोड साइड एड पर खर्च कर देते हैं।

स्ट्रीट लाइट में तो फिर भी कम वाल्ट के बल्ब लगे होते हैं, लेकिन रोड के किनारों पर लगे विज्ञापनों या बस स्टेंड वगैरह पर लगे विज्ञापनों पर एक नहीं दो नहीं आप छः सात मरकरी लाइट को एक साथ देख सकते हैं.

तो कोई जाकर दिल्ली सरकार से पूछता क्यों नहीं कि यहां कि बिजली क्यांे नहीं काटी जाती। यहां पूरी रात लगातार लाइटें जलती रहती हैं यहां बिजली कटौती आखिर क्यों संभव नहीं है भई ?खैर सवाल जवाब से परे मैं शीलाजी के मष्तिष्क में बिजली कौंधवाना चाहती हूं. हमारी मुख्य मंत्री जी गर्मी में लोगांे को बिजली नहीं दे रही. करोडों पैसे यहां वहां बरबाद तो हो ही रहे हैं, फिर भी षीला सरकार कुछ पैसे खर्च करके बिजली बचाने के बारे में नहीं सोच रही.

पता नहीं क्यों वे रोड साइट विज्ञापनों, बस स्टेंड पर और स्ट्रीट लाइट के लिए सोलर ऊर्जा से क्यों कतरा रही हैं. वैसे तो खुद विज्ञापन दिलवाती हैं कि अपने घर में सोलर वाटर हिटर का इस्तेमाल करें और बिजली बचाएं साथ ही उस के प्लांटेषन पर खासी छूट और लोन तक दे रही हैं, लेकिन क्या उन की ये सारी बातें कोरी हिदायत भर हैं या फिर वे दिल्ली को अपना घर नहीं मानती.

अगर आप को इस के पीछे कोई ठोस वजह नजर आती है, तो कृप्या मुझे भी उस से अवगत कराएं

अनिता षर्मा

‘बित्ति बांधै डोरडी ठम्मा ठम, ठम्मा ठम‘



एक दौर हुआ करता था कि मां अपने बच्चों को घर में ठूंठती रह जाती थी, पर बच्चे चिलचिलाती धूप या कड़ाके की ठंड की परवाह किए बगैर यहां से वहां मारे मारे फिरते थे. वजह थी खेल.

बच्चे खेल खेल में एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंच जाते या फिर सुबह से शाम होने तक एक ही गंेद से चिपके एक ही मैदान पर भागते रहते. उस दौर के किस्से अपनी मम्मी या पापा के मुंह से ही सुने हैं. उसी सुनहरे दौर का थोडा ही सही पर एक हिस्सा मेरे भाग्य में भी आया. चलो छुटते दौर की लंगोटी ही सही.

मुझे आज भी याद है नाना जी के गांव में भात्ता नाम का एक पागल हुआ करता था. हम बच्चों में सबसे बड़ा होने के चलते वह लम्बे समय तक हमारा मुखिया बना रहा. दो महीने की पूरी छूट्यिां वहां बिताने के चलते भात्ता से हमारा खासा लगाव था.

वह हर चैथे या पांचवे दिन हमें एक नया खेल सीखाता, लेकिन हां एक ऐसा खेल था, जो वह न जाने कब से भूला ही नहीं था. खेल का नाम था ‘बित्ति बांधै डोरडी‘ यह खेल भी उस ने खुद ही बनाया था. खेल में गांव के सभी हमउम्र बच्चे एक के पीछे एक खड़े होकर रेल के डब्बे बनते थे और इंजन का काम करता था खुद भात्ता.

बच्चों को उन की लंबाई के हिसाब से खड़ा किया जाता, जिस के चलते जो छोटे बच्चे जबरन खेल में घुसपैठ करते वे पीछे रह जाते. डब्बों के संयोजन के बाद षुरू होता था खेल.

भात्ता जोर से चीखता ‘बित्ति बांधै डोरडी‘ और हम सब पीछे पीछे बोलते ‘ठम्मा ठम, ठम्मा ठम‘ वेा यह बोलते ही भागना षुरू कर देता तो हम भी चाबी भरे रोबट से पीछे पीछे ठम्मा ठम, ठम्मा ठम कहते चल पड़ते. पूरे गांव का एक चक्कर, दो चक्कर, फिर तीन... और न जाने कितने ही चक्कर बच्चे लगा लेेते. जबरन घुसपैठ करने वाले जो छोटे बच्चे पीछे छूट जाते उन्हें आउट घोषित करते हुए घर जाने का आदेष दे दिया जाता, लेकिन जिद्दी बच्चे अगले चक्कर में फिर से घुसपैठ कर लेते.

सभी बच्चों में से अगर किसी के मुंह से गलती से भी गाली या कोई अपषब्द निकलता तो 2-3 दिन के लिए उसे भात्ता खेलों में षामिल नहीं करता था. दौड़ लगाने से लेकर कलाबाजी की कई तरह की प्रतियोगिताएं वह हमारे बीच करता ही रहता था.

भात्ता ही नही हम सब भी उस वक्त इस बात से दूर थे कि भात्ता अपने इस बेसिर पैर के खेल से हमारा षारीरिक विकास कर रहा था. इतना ही नहीं कई बार वह हमारे सामने कई अजीब से सवाल रख देता जिनके जवाब निकालने के लिए हम घंटों रेत पर उंगलियां घुमाते रहते थे, लेकिन जो जवाब उस से मिलता वह शायद ही कोई और दे पाता था.

लोग कहते थे कि भात्ता पागल है, लेकिन मेरी नजर में उस में दिमाग इफरात से था, जिस पर पागलपन का इफतरा लगा था. वरना नाना जी की हवेली की उस चोटी पर जिस पर बच्चों का जाना मना था, वह आसानी से न पहुंच पाता. वहां बंदरों के बीच षान से बैठकर वह हमारे लिए नए नए खेल कैसे बुन लेता था, मेरी समझ से यह आज भी परे है.

भात्ता के साथ मेरा कोई व्यक्तिगत जुडाव या संबंध नहीं था, लेकिन फिर भी न जाते क्यों मैं गांव जाते ही उसे ठूंठना शुरू कर देती. मेरी याद में उस से मेरे संवाद का कोई छुटपुट अंश भी होता, तो मैं उस पर पूरी कहानी लिख देती, लेकिन भात्ता की बातें सुनने के सिवाय मैंने शायद ही कभी उसे कुछ कहा हो.

पर मुझे भात्ता से स्नेह था. अगाध तो नहीं, पर स्नेह था जरूर. चाहे लेश मात्र ही हो... पर स्नेह की उपस्थिति जरूर थी. गांव से लोटने के पखवाड़े भरत बाद तक उस के साथ खेलने की ललक की भभक अकसर भीतर उठती थी. खैर, शहर की व्यस्त जीवनषैली में पहुंचते ही कब भात्ता गांव की सुनसान वनी में छिप जाता पता लगाना मुश्किल है.

जिंदगी के शायद 4-5 साल तक ही मैं उस का अनमोल सानिंध्य पा सकी। एक बार गांव जाने पर पता लगा कि वह किसी रात ट्रक के पीछे लटक कर जाने कहां चला गया. भात्ता पागलपन के इफतरे के साथ जाने कहां चला गया. आज जब घर पर बचपन की बात चली तो बचपन की यादों की हवेली से उस ने मुझे पुकार ही लिया. वह जोर जोर से कह रहा था ‘बित्ति बांधै डोरडी‘ और अनायास ही मेरे मुंह से निकल पड़ा ‘ठम्मा ठम, ठम्मा ठम‘

मैंने मम्मी से पूछा ‘‘ बित्ति बांधै डोरडी का मतलब क्या होता है.‘‘ उन की आंखों में एक अजीब सी चमक आ गई. उन्होंने मुस्कराते हुए कहां ‘‘भात्ता ?‘‘ उन के सवाल पर मैंने हां में सर हिला दिया.
‘‘ इस का कोई मतलब नहीं होता, वो पागल था. भला पागलों की बातों का भी कभी कोई मतलब होता है.‘‘ और वह उठकर चली गई.

लेकिन मैं जानती हूं इस बात का जरूर कोई अर्थ है। कोई गहरा अर्थ, जो ेषायद हम समझदारों के शब्दार्थ से परे है. शायद आप मुझे भी पागल समझे जो एक पागल की बातों में अर्थ को खोज रही है, पर इस पागलपन भरे अपनेपन की ही आज हम सब को जरूरत है. क्योंकि आज के इस दौर में जब अच्छे दिखने वाले लोग हमें दगा दे जाते हैं, तब उस समय का वह भोला भात्ता आज भी मेरे स्नेह से लबालब है, भले ही मुझ से दूर क्यों न हो।
बचपन का एक साथी जिसे लोग पागल कहते थे, यकायक यादों की अंधेरी कोठरी में टिमटिमाने लगा. मैं उस के विषय में कुछ ज्यादा तो नहीं जानती, लेकिन अपनी श्रृद्धा सुमन उस की यादों के पायदान पर अर्पित कर रही हूं. नहीं जानती कि वो इस वक्त कहां है, पर चाहती हूं कि जहां रहे खुष रहे...

अनीता शर्मा

बुधवार, 15 जुलाई 2009

एक पत्रकार की कहानी

हाल ही में हमारे एक और पत्रकार भाई की संदिग्ध हालातों में हत्या की खबर मिली. इन दिनों इस तरह की हत्याओं के मामले कुछ ज्यादा ही सामने आ रहे हैं. शायद इसी के चलते हमारे बास ने हमें हाल ही में एक दमदार स्टोरी करने से मना कर दिया. हमारी तैयारी पूरी थी कुछ लोगों की पोल खोलने की, लेकिन जैसे ही बास ने मना किया हमारे थोथे मीडिया जगत की ही पोल खुल गई कि खुद को निडर और कलम का सच्चा सिपाही कहने वाले हमारे मीडिया सैनिक कितने डरपोक हैं. पर जनाब हम नहीं हैं डरपोक. हम तो अपनी स्टोरी को कर के ही मानेगें.
पर कैसे? पैसे वैसे तो हैं नहीं और बास ने स्टोरी के लिए मना कर दिया तो अब कन्वेंस भी नहीं मिलेगा. छोड़ो भी यार अब कुछ तो तहलका मचाना ही चाहिए न. जब स्टोरी कवर कर लेंगें और वह हिट हो जाएगी, तो बास खुश होकर कंवेंस भी दिला ही देंगे. अब तो हम बास को बिना बताए स्टोरी करने की पूरी फिराक बना चुके हैं.
एक बार यह स्टोरी हो गई, तो मीडिया जगत में अनिता शर्मा का नाम चमक जाएगा. और अगर जान जाती है, तो जाए... साला जी कर भी कौन से झंड़े गाड़ देंगे हम. कम से कम मर कर कुछ दिन टीवी पर तो चिपके रहेंगे.... वैसे भी इस मनहूस इलैक्ट्रानिक मीडिया वालों को जाने हमारी सूरत से क्या परहेज है... कितना ही अच्छा लिख लो हमें स्क्रीन पर नहीं दिखाते. जनाब कहते हैँ कि हमारी आवाज पैनी है वीओ अच्छा नहीं जाएगा, स्क्रीन पर चेहरे के दाग दिख रहे हैं, चेहरे पर एक्प्रेशन नहीं हैं वगैरह वगैरह बहाने बना कर हमे उस स्क्रीन नामक सोने की चिड़ी से दूर ही बनाए रखते हैं.
अब आए दिन हमारे पत्रकार मित्रों की हत्या की खबरें आती रहती हैं. और जो स्टोरी हम करने जा रहे हैं उस में भी मौत का कोई कम डर तो नहीं. इसलिए ही हम स्टोरी करने से पहले ही एक सुंदर सी फोटो खिचवाएंगें और उसे हर मीडिया हाउस में भेजेंगें, ब्लाग पर लगाएंगे, फेसबुक, आरकुट हर सोशल नेटवर्क साइट पर उसे चिपकाएंगे. अरे भई अगर मर गए, तो मीडिया वाले हमारे दोस्तों को फोटो ठूंठने में मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी न और कम मशक्कत वाली स्टोरी को करना हमारे भाई लोगों को ज्यादा ही पसंद है. और कहीं किसी ने हमारी कोई गंदी सी फोटो दिखा दी तो, नहीं नहीं... हम अपनी सुंदर से फोटो की सरल उपलब्धता का पूरा जुगाड़ कर के ही स्टोरी कवर करने जाएंगे. भई जिंदा रहे तो हीरो मर गए तो हीरो. यानी चट भी मेरी पट भी मेरी वो भी झटपट.
जब हमने मीडिया के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था, तो क्या जानते थे कि यहां इतनी भुखमरी है. हमें तो टीवी दिख रहा था और दिख रही थी उस पर हमारी सुंदर सी सूरत. पर जनाब ग्लैमर के चक्कर में मारे गए हम. वरना यहां पाठ्यक्रम खत्म होने के एक साल बाद भी महज 10 हजार ही कमा रहे हैं कहीं और होते, तो 40-30 पर हाथ पसारे ठाठ से रहते. लेकिन क्या करें मति जो मारी गई थी हमारी, जो डेढ़ लाख का कोर्स किया महज 10 हजार की नौकरी के लिए. हाय रे टीवी पर भी नहीं दिखे.
खैर, अब और नहीं. यह स्टोरी हो गई, तो तनख्वाह और रुतबा दोनों ही बढ़ेंगे. मर गए तो भी मीडिया के इतिहास में अमर हो जाएंगे. हम साबित कर देंगे कि हम डरपोक पत्रकार नहीं. हर समाचार पत्र, चैनल और रेडिया स्टेशन पर हम ही छाए होंगे. हमारी मिसाल दी जाएगी. मीडिया पर लिखी जाने वाली हर किताब में हमारा जिक्र होगा और हमें महान और निडऱ पत्रकारों की लिस्ट में शामिल किया जाएगा.
पर डर है, कहीं हमारी मौत को कवरेज ही न मिली तो? या हमारी स्टोरी को सराहा न गया तो? अरे धुत्त मिलेगी कैसे नहीं, हमारी स्टोरी धांसू जो ठहरी. आखिर काल गल्र्स के धंधे पर है, सैक्स से जुड़ी है, हिट तो होगी ही. पर आए दिन ऐसी खबरे छपती रहती हैं, हमारे पास भला क्या नया होगा?
अरे यार नया नहीं है तो न सही. हम खुद ही कुछ ऐसा जोड़ देगें जो स्टोरी को दमदार बना दे. हमारी बात पर सब यकीन करेंगें, आखिर हम पत्रकार जो ठहरे. अब सच्चे हों या झूठे पत्रकार तो पत्रकार होता है. हम ही क्या हमारे दोस्त भी ऐसे ही करते हैं.
हम खयालों में ही डूबे थे कि यकायक फोन बज उठा. अरे हमारे बास का फोन था. हमने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से सरपट सी आवाज कोनों में घुस गई ''कहां हो तुम? तुम ने जो स्टोरी परसों फाइल की थी उस पर केस हो गया है. भावे जी का कहना है कि तुमने उन से बात किए बिना ही उन्हें कोट किया है. आफिस पहुंचों एडिटर जी गुस्से में हैं और तुम से मिलना चाहते हैंÓÓ
हमें लगा कि हमारी स्टोरी कवर करने से पहले ही किसी ने कह दिया हो 'पैक अपÓ। हम मुंह लटका कर स्टोरी भूल भाल कर खुद को बचाने के उपाय ठूंठने की जुगत में लग गए.

( अनीता शर्मा )
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