मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

अमृता प्रीतम, यादों के झरोंखों से...


लाखों लोगों की भीड़ में किसी को होश न था, सब अपनी अपनी जान बचा कर निकलना चाहते थे, कोई दबेकुचले या मर ही क्यों न जाए किसी को कोई परवाह नहीं। जाने कितने ही बच्चे यतीम हुए, कितनी ही मांगों का सिंदूर उजड़ गया और कितनी ही कोख सूनी हो गई... बात भारत पाक विभाजन की है, हिंदुस्तान के इतिहास का न भुलाए जाने वाला दौर. चारों तरफ लोगों की हूक ने एक उमस सी पैदा कर दी थी. और ये उमस आसमान के कागज पर शब्दों सी जा छपी अमृता प्रितम की इन लाइनों में...

अज्ज आ खां वारिस शाह नू,
किते कबरां बिच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल।
इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे बैन
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहन।

अमृता प्रीतम एक जानीमानी साहित्यकार, ने यह लाइनें रेल के किसी कोने में बैठ कर शायद इसलिए लिखी थी कि वह अपने मन को तसल्ली दे सके, लेकिन वह क्या जानती थी कि आने वाले दिनों में हिन्दुस्तान ही नहीं पाकिस्तान के लोग भी इस कविता को किसी धर्म ग्रंथ की तरह अपनी जेब में रखेंगे और पढ़ पढ़ कर जाने कितनी ही बार आंसु बहाएंगें। विभाजन से 28 साल पहले के क्रांतिकारी दिनों में 31 अगस्त 1919 को इस सो य सी लड़की ने जन्म लिया, पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में. महज 11 साल की उम्र में, जब अमृता ने अपनी मां को सदा के लिए खो दिया, तब ही शायद वह जान पाई कि जीवन की सही धारा क्या है. पिता का स्वभाव बेहद कड़क, लेकिन उन की कलम को रूप, रंग और देह देने में उनका खासा सहयोग रहा.


लेखक पिता के साथ अमृता का बचपन लाहौर में बीता. पिता चाहते थे कि अमृता ईश्वर भक्ति पर कविताएं लिखे, लेकिन मां की मौत ने अमृता के मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा को समाप्त कर दिया था. जो अकेलापन उम्रदराज इनसान को भी हताश कर सकता है, अमृता ने उस पर बचपन में ही विजय पा ली. चाहे वह 11 साल की रही हो या 16 की अकेलेपन की तीखी कटार हमेशा उस के राह में रही और शायद यही वजह रही कि उन्होंने प्रेम की कविताएं लिखना शुरू कर दिया. जाहिर है भोगी हुई चीज को आधार बना कर लिखी हर पक्ंित सराहनिय होती है. और अमृता की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी.


अमृता की पहली कविता इंडिया किरण में छपी और पहली कहानी 1943 में कुंजियां में. आज के इस दौर में भी जब दो लोग लिव इन में रहने से कतराते हैं, अमृता ने इस रिश्ते को उस दौर में जीया, जब औरतें महज सजावट की चीज हुआ करती थीं. सीधे शब्दों में कहा जाए तो अमृता अपनी शर्तों पर जीने वाली आजाद महिला थीं. आज के भड़काऊ जेंडर विषयों से दूर अमृता की लेखनी में एक शालीन स्त्री विमर्श था, जिस में वह किसी पुरुष से लडऩा या उस पर दोषारोपण नहीं चाहती थी, चाहती थी तो बस अपने जीवन को स्वयं जीने का हक . अमृता ने अपनी हर रचना में महिलाओं के लिए उदासीन पुरुष समाज को पेश किया।


मोहन सिंह की पत्रिका 'पंज दरया से अमृता ने अपनी पहचान बनाई। सन् 1936 में अमृता की पहली किताब छप कर बाजार में आई. लगभग एक साल बाद ही उन्होंने लाहौर रेडियो ज्वाइन कर लिया और अमृता को अपने बचपन का आंगन छोड कर दिल्ली आना पड़ा. यहां उन्होंनें आल इण्डिया रेडियो ज्वाइन किया.


अमृता ने करीब 100 रचनायें रचीं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण और आत्मकथा शामिल हैं। 'पांच बरस लंबी सड़क, 'उन्चास दिन', 'कोरे कागज', 'सागर और सीपिया', 'रंग का पत्ता', और सब से चर्चि‍त उपन्यास 'डाक्टर देव' शामिल है. पिंजर उपन्यास भारतपाक विभाजन के दुख को व्यक्त करता है, जिस पर हिंदी सिनेमा में एक फिल्म भी बन चुकी है.'

अमृता पंजाबी कविता की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलवाने वाली कवयित्री हैं। उन्होंने जितना मार्मिक पंजाबी में लिखा उतना ही हिंदी में भी. साल 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली वह पहली महिला थीं.

इस के एक साल के भीतर ही उन्हें पंजाब सरकार से पंजाब अकादमी पुरस्कार मिला। अमृता जितनी गहराई से लिखती लोग उन के उतने ही कायल होते रहे, नतीजतन साल 1982 में 'कागज के केनवास के लिए वह ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्‍मानित हुईं. इस के अलावा पद्मश्री और पद्मविभूषण स मान भी अमृता के मिले.

पंजाबी साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए अमृता ने इमरोज के साथ मिल कर 'नागमणि साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली। इमरोज का कहना है कि साल 1966 से 2002 तक उन्होंने इस पत्रिका को चलाया. अपने नीजि जीवन में अमृता ने खासे विवादों का सामना किया. बचपन में मां को खो देने के बाद जब पिता ने 16 साल की उम्र में उन की शादी लाहौर के अनारकली बाजार में एक बड़ी दुकान के मालिक सरदार प्रीतम सिंह से कर दी. विभाजन के बाद जब वह हिंदुस्तान में साल 1957 में शमा पत्रिका के लिए काम करती थीं, तब उन की मुलाकात चित्रकार इमरोज से मुलाकात हुयी और उस दौर में बेबाकी और हिम्‍मत दिखाते हुए अमृता ने अपने पति से अलग होने का फैसला लिया. साल 1960 से वे साथ रहने लगीं.


इसके बाद का पूरा जीवन उन्होंने इमरोज के साथ में गुजारा। अमृता का इमरोज से कभी निकाह नहीं हुआ और वह इमरोज से उम्र में भी बहुत बड़ी थीं. जब इन सब पर आलोचनाएं होने लगी, तो इन सब से परे अमृता ने नारी के आदर्श रूप को जीया.अमृता का नाम ऊर्दू शायर 'साहिर लुधयानवी' के साथ भी जुड़ा अमृता ने खुद भी कभी इस रिश्ते से इनकार नहीं किया. अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में जब अमृता ने कहा कि जीवन में उन्हें महज तीन ही बार अपने भीतर की 'सिर्फ औरत को देखा है. उन में एक प्रसंग साहिर के साथ है.


जीवन के अवसादों को दूर करने के लिए वह महीनों तक मनोवैज्ञानिक की देखरेख में भी रहीं। इस बीच जब डाक्टरी सलाह पर वे परेशानियों और सपनों को कागज पर उकेरती, तो जाने कितनी ही नई अमृताएं उन में से झांकने लगतीं। अपने इस इलाज के दौरान अमृता ने फोटोग्राफी, नृत्य, सितार वादन, टेनिस वगैरह से भी दोस्ती की। दिल्ली में 31 अक्तूबर 2005 को उन का निधन हो गया, लेकिन उन का साहित्य और उन की रचनाएं आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं।


(यह लेख कवि व पेंटर इमरोज से मिली जानकारी पर आधारित है।)








शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

हर कवि मेरा दुश्मन सा क्यों है...


अगर आप इस ब्लाग पर इस उम्मीद के साथ आए हैं कि यहां आप को कुछ अच्छा पढऩे को मिलेगा, तो मैं आप से माफी चाहूंगी। क्योंकि इस ब्लाग के कर्ताधर्ता आजकल मानसिक विक्लांग्ता के शिकार हो गई हैं। वे किसी तुच्छ प्राणी के मोहपाश में फंस कर सब कुछ भुला चुकी हैं.
इस लिए अच्छे की उम्मीद करने वाले विजिटर से क्षमा चाहती हूं. ब्लाग का सहारा ले कर वे अपने मन की भड़ास को कम करने का काम कर रही हैं... ईश्वर उन की सहायता करे और बेतुकी बातों के लिए आप उन्हें माफ करें...
लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईष्र्या करते हैं या चुगली करते हैं
लोग या तो शिष्टïाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चाताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हंसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत करता है
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफूंदीयायी हुई चीज हो गई है-
रघुवीर सहाय की इन चंद पक्तियों ने मानों संपूर्ण सत्य को प्रकट कर दिया हो। जिस संदर्भ में मैंने इन्हें यहां लिखा है, हो सकता है सहाय जी ठीक उस के विपरीत इसे प्रस्तुत कर गए हों, लेकिन जो भी हो यह पक्तियां कहीं न कहीं हमारे रिश्ते के सच को भी ढ़ो रही हैं या शायद आज के स्वार्थी समाज में पनप रहे हर रिश्ते को।
सच ही तो है स्नेह, प्रेम, त्याग, संवेदनाएं ये सब तो अब बस कवियों के सुंदर प्रतिमानों सी कविताओं की शोकेस में ही नजर आती हैं। विश्वास की जगह अब विश्वासघात ने ले ली है और प्रेम की तुम जैसे भोगी, देह के पुजारियों ने.
फिर भी अकसर हवा के साथ कुछ आवाजें सहसा कान के परदों के पार चली आती हैं। सच्चे प्रेम की आवाजें, विश्वास की आवाजें, जो सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि सच्चाई इस अंधेरी दुनिया में अभी भी किसी कौने में छिप कर सांसे भर रही है... विश्वास भी मरा नहीं है वह उस के ही साथ कहीं है निरंतर ठंड़ास बांधने को...
फिर सहसा सोचती हूं कि अगर सच्चाई है, तो वह सदा रोती ही क्यों रहती है... इस सवाल का जवाब देने आगे आती है मेरे भीतर बैठी मेरी सच्चाई (तुम जिसे मारने की भरसक कोशिशें कर चुके हो) कि शायद सच्चाई को झुठ नजर ही नहीं आ पाता, क्योंकि हर काला झूठ सच का कंबल ओठे रहता है जैसे तुम, हमेशा खुद को निर्दाेष, बेचारा और सच्चा सबित करने में लगे रहते हो। धुमिल की कविता रामकमल चौधरी की कुछ पक्तियां पढ़कर तो ऐसा लगाता है मानों तुम्हारे लिए सालों पहले की गई भविष्यवाणी. जानना चाहोगे वे पक्तियां क्या हैं- 'एक मतलबी आदमी जो अपनी जरूरतों पर निहायती खरा था.'
त तुमने तुमने जो किया तुम जानों, लेकिन मेरी समझ से यह बात परे है कि तुम्हारी करनी की सजा भला मुझे क्यों। गलत तुम थे, धोखा तुमने दिया, विश्वास तुम ने तोड़ा, तो फिर ये सारे कवि हमेशा मेरे जीवन में विरह बादल से क्यों छाए रहते हैं. कोई भी बात या संदर्भ हो ये अपनी किसी न किसी पंक्ति के साथ आ खड़े होते हैं मश्तिष्क के मंच पर अपनी कविता प्रस्तुत करने. अब श्रीकांत जी को ही देख लो, यकायक आ खड़े हुए हैं यहां अपनी इन पक्तियों के साथ, लेकिन मैं भी कम दोषी नहीं हूं अगर वे अपनी कविता सुना कर मुझे दुखी करते हैं, तो भला मैं क्यों खुद को उन की कविता का भाव बना लेती हूं...
मेरे और औरों (तुम्हारे) के बीच
एक सीमा थी
मैंने जिसे छलने की कोशिश मैं ने ओरो (तुम्हारी) की शर्तों पर प्रेम किया।
अब श्रीकांत जी जब औरों की बात कर ही रहे थे, तो बताओ मुझे वहां तुम्हें और स्वयं को छोंकने की क्या जरूरत थी। पर करूं भी तो क्या अब तक जितनी भी कविताएं पढ़ी सब की सब मेरे पीछे पड़ गई हैं, कहती हैं कि मुझ से उन का आत्मीय संबंध है ठीक वैसे ही जैसे एक समय में तुम कहा करते थे, इसलिए ही तो अब उन पर भरोसा नहीं कि कहीं वे भी तुम सी कभी किसी और के साथ खड़ी नजर आएंगी. श्रीकांत की ही कुछ और पक्तियां मानों उन्होंने भी इच्छाओं को करीब से टूटते देखा है...
लेकिन एक बार उड़ जाने के बाद
इच्छाएं लौट कर नहीं आती
किसी और जगह पर घोंसले बना लेती हैं...
हां, महादेवी जी की कविताओं में अकसर अपनापे का भाव पनपता है, लेकिन अज्ञेय जी जिनकी कविताओं से मैं प्राय: उचित दूरी बना कर रखती थी, यह कैसा जुड़ाव है नहीं जानती, शायद यह भी तुम्हारे ही कारण है कि उन की कविताएं पढ़ते वक्त उक्ताने वाली लड़की को उन की कविताओं में अपनी पीड़ा के दर्शन होने लगे...

और घास तो अधुनातन मानव मन की तरह
सदा बिछी रहती है- हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे

द देखो देखो न कितनी सार्थक है यह पक्तियां मानों मैं हरी घास और तुम 'कोईÓ। आह, कविता का नाम तो याद नहीं लेकिन कुछ और पक्तियां दिमाग में घूम आई हैं अज्ञेय की...
मैं तुझे सुनूं,
देखूं, ध्याऊं,
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाककहां सहसा
अगर तुम इन्हें अज्ञेय के शब्दों में उकेरी गई मेरी कोरी भावनाओं का नाम दो, तो कुछ गलत न होगा। इसी कविता में उन्होंने कहा है 'छू सकूं तुझे, तेरी काया को छेदÓ सच पहले कभी मैंने अज्ञेय को अपने इतने करीब न पाया था. अरे उन की क्षणिका भी याद हो आई 'सांपÓ. याद तो होगी ही तुम्हें... पहली बार तुम्हें मैंने ही सुनाई थी, आफिस के जीने में... पर तब तुम ऐसे नहीं थे. क्या जानती थी नादानी में तुम्हें जो कविता सुना रही हूं एक दिन तुम उसे यूं अंगिकार ही कर लोगे...

महादेवी जी के बारे में क्या कहूं उन की कविताएं तो मानों मेरे भीतर कहीं घर बना कर रहती हैं. हर परिस्थिति में उन की कोई न
कोई कविता मुझे घेरे ही रहती है. पर दो कविताओं की तीन पक्तियां तुम तक पहुंचाना चाहती हूं
पहली-दूर तुमसे हूं, अखंड सुहागिनी भी हूं।

दूसरी और तीसरी-
तुम मुझमें अपना सुख देखो, मैं तुम में अपना दुख प्रियतम।

जातनी हूं कि तुम्हारा सच क्या है, लेकिन क्या करूं कभी उसे स्वीकार नहीं पाती। लगता है तुम वही हो, जिससे मैंने प्रेम सूत्र जोड़ा था, ये नया चेहरा तुम्हारा नहीं एक भ्रांति है. पर सच तो यह है कि तुम बदल गए हो. अरे नहीं तुम बदले कहां हो, तुम तो अपने सही रूप में हो... वैसे ही नीच जैसे तुम भीतर से हो. हां, कुछ दिनों के लिए तुमने कलेवर जरूर बदला था. ओह, फिर से वही पक्तियों के घेराव. इस बार पंत की कुछ पक्तियां हैं 'आह, सब मिथ्या बात...Ó कविता का नाम याद नहीं है शायद परिवर्तन है. लेकिन हां, परिवर्तन की कुछ और पक्तियां हैं...
शून्य सांसों का विधुर वियोग
छुडाता अधर मधुर संयोग
मिलन के पल केवल दो चारआह, विरह के कल्प अपार

इन पक्तियों में पंत जी ने आह नहीं लगाया, लेकिन जब मैंने इन्हें पढ़ा, तो आह स्वत: ही ओठों से फूट पड़ा। मिलन के पलों से कुछ और पक्तियां भी याद हो आई, लेकिन नहीं जानती कि किस ने लिखी हैं और किस कविता से हैं बस याद हैं. हो सकता है कि इन में कुछ गलती भी हो, लेकिन भाव वैसा ही शुद्ध है...
बालको सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह छिपा करनींद में डूब जाता हूं
बस अब और नहीं, मेरा यह चि_ïा कभी खत्म होने का नाम नहीं लेगा, ये कविताएं, तो कभी पीछा छोडेंगी नहीं, इसलिए मुझे ही हाथ को रोकना होगा. लेकिन सुनो कहने को बहुत कुछ है मेरे पास, कभी सुनने वाले बनों, तो जानूं...
अनु

मेरा अनोखा सपना


नागार्जुन की कविता आज सुबह से खूब याद आ रही है, चंदू मैंने सपना देखा. पहली बार में इस कविता का मतलब समझ नहीं पाई थी. बस तुकबंदी देखकर यह लगा था कि एनसीआरटी की किसी किताब की कोई कविता है. खैर हुआ यह कि रात को एक अजब सा सपना मुझे आया, जो इस कविता की तरह ही उलझा गया.

मैं छत पर लेटी थी, कि अचानक चांद का रंग लाल हो गया और फिर उस पर कुछ लिखा सा दिखने लगा, शायद किसी शख्स का नाम. हां, नाम ही तो था, उस का नाम जिस ने मुझ इसलिए छोड दिया, ताकी वह अपने घर वालों की खुशी से शादी कर सके. खैर शायद उस नाम का बोझ इतना था कि चांद नीला पड़ गया और लहराने लगा. कुछ ही देर में वह टूट कर मेरी चारपाई पर आ गिरा. मैं भाग कर पापा के पास गई और कहा, पापा देखिए चांद गिर गया. पापा ने कहा बावरी बेटी बाहर जा कर तो देख कितनी रोशनी है अगर चांद गिर गया, तो रोशनी कैसी. मैंने बाहर देखा, तो वाकई रौशनी थी बिलकुल पूर्णिम जैसी. लेकिन चांद आसमान से गायब था.
और मैं समझ गई कि चांद के सामने तारों को कोई देखता ही नहीं था, जब वह गिरा तो तारों को मौका मिला कि वह अपनी चमक बिखेर पाते. भीतर पापा के पास दोबारा गई, तो उन्होंने कहा यह है क्या इसे खोल कर तो देख. खोलती कैसे उस पर मेरे प्यार का नाम लिखा था. पापा ने हाथ से छीन कर उसे खोला, तो उस के भीतर से एक डस्टबिन और एक माउस निकला. इतनी देर में मेरी आंख खुल गई और मुझे याद आया कि आज शाम को आफिस से घर लौटते समय मुझे एक डस्टबिन और एक माउस खरीदने हैं.
अगर आप इस का मतलब समझ पाएं हों, तो कृपया मुझे भी अनुग्रहित करें...

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम

संभव 2009



शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम

शारीरिक व मानसिक चुनौतियां झेल रहे बच्चों व उन के लिए काम कर रही संस्थाओं व लोगों के लिए नवंबर 2009 की 14 व 15 तारीखें खास हैं।

सालों से ऐसे लोगों के बीच काम कर रही संस्था ‘‘अल्पना‘‘ ‘एसोसिएशन फार लर्निंग परफार्मिंग आटर्स एंड नारमेटिव एक्शन‘ ने ‘संभव 2009‘ के तहत 14 व 15 नवंबर को पूरे दिन अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी है. विस्तृत कार्यक्रम यों हैः

14 व 15 नवंबर २००९

स्थानः मेन आडिटोरियम, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, मैक्स मुलर मार्ग, नई दिल्ली-३
समयः प्रातः ९.३० से प्रतिदिन
मुख्य अतिथिः श्री जयराम रमेश (केंद्रिय राज्य मंत्री, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार।)
प्रतिभागी देशः भारत, अफगानिस्तान, नेपाल, भुटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, कम्बोडिया, मलेशिया,
थाईलैंड, मोरिशस, नाइजीरिया.

अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संध्या

14 नवंबर

स्थान: फिक्की आडिटोरियम, तानसेन मार्ग, नई दिल्ली - २
समयः सांय 6।00 बजे से।
प्रतिभागी देश: भारत ( अल्पना- नार्थ इंडियन ग्रुप, नार्थ ईस्ट इंडिया ग्रुप, ईस्ट इंडिया ग्रुप),
अफगानिस्तान, म्यांमार, नेपाल, थाइलैंड, बांग्लादेश।
मुख्य अतिथिः श्री मुकुल वासनिक,
केंद्रिय मंत्री, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता.
15 नवंबर
स्थान: स्टेन आडिटोरियम, हैबिटेट सेंटर, लोदी एस्टेट्स, नई दिल्ली-३
समयः सांय ६ ।00 बजे से.
प्रतिभागी देश: भारत (अल्पना- नार्थ इंडिया ग्रुप, वेस्ट इंडिया ग्रुप, साउथ इंडिया ग्रुप), नाइजीरिया,
मारिशस, भूटान , श्रीलंका, मलेशिया।
मुख्य अतिथिः श्रीमती गुरशरण कौर (प्रधानमंत्री डा.
मनमोहन सिंह की धर्मपत्नी, चर्चित समाजसेवी।)
विशिष्ट अतिथिः श्रीमती निरूपमा
राव (विदेश सचिव, भारत सरकार)
अध्यक्षताः श्री शेवांग फुनसांग (चैयरमैन, पब्लिक
इंटरप्राइजेज सलेक्शन बोर्ड.)

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

यह पीड़ामयी बयार

बह चली है कैसी,
पीड़ामयी यह बयार,
जो बुनती रहती है,
विपुल क्रन्दन अपार,
अनायास ही दे जाती है
अनचाहे मुझको
अश्रु उत्स उधार,
प्रणय का तुम्हारा चुंबन
मेरी स्मृति बराए जूं आहार,
हाय, नेस्ती छाई है
बन जीवन विहास.
उसकी वाय में घुलना तुम्हारा
ए मेरे अवरुद्ध श्वास,
आज भी दे रहा है मुझे
वही मिश्रित सा अहसास।
तुम ही कहो अब
प्रयण का वह पल,
कैसे भूलूं मैं
बन पलाश.
देखो तो,
तुम्हारा वह भोगी स्पर्श,
नित करता है मुझसे अट्टहास।
अनीता शर्मा

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

मेरी कुछ फालतु बातें...

कई बार भावनाओं का तेज प्रवाह शब्दों का कंगलापन बन कर सामने आता है और उसमें अगर वक्त ऊब की काई भी लगा दे, तो यह कंगलापन और भी बढ़ जाता है, इसलिए ही शायद समझ नहीं पा रही कि क्या लिखूं. फिर भी जो बन पड़ा ऊटपटांग लिख रही हूं, क्योंकि अगर मन में भरे इस दर्द को हल्का न किया तो निश्चित ही पागल हो जाऊंगी...
पहले सोचा था कि दोस्तों से इस बात को बांट लूं, लेकिन किसी के पास इन बेतुकी बातों के लिए भला समय कहां...
करवाचैथ बीत गया, लेकिन मेरे लिए तो मानों सांप की कैंचुली सा अभी भी बचा हुआ है.
दो दिन से गला है कि उम्मीद लगाए बैठा है कि तुम आओगे और उसे पानी की कुछ बूंदें दान कर जाओगे. इस की तमन्ना पूरी तो मैं भी कर सकती हूं, लेकिन क्या करूं मैं तुम जैसी नहीं हूं न कि अपनी ही कही बात से पलट जाऊं, मजबूरियों का नाम लेकर.
लगा था कि तुम आ जाओगे, पर क्या जानती थी कि एक बार फिर मैं गलत साबित हो जाऊंगी...
पर मैं हमेशा की ही तरह इस बार भी तुम्हें समझ न पाई. हर बार तुम मेरी उम्मीद से ज्यादा दर्द दे जाते हो. शायद इसलिए भी क्योंकि मैं हर बार तुमसे नेह भरे आचरण की उम्मीद कर बैठती हूं या फिर शायद तुम्हारी दया की...
बिना किसी मतलब या फायदे के तुम्हारा मुझ तक आना...
सच, यह तुम्हारा मुझ पर एक और अहसान होगा या एक और बार की गई दया...
इसलिए भले ही मैं प्यासी मर जाऊं, लेकिन इस बार मुझ दया मत करना। क्योंकि मैं फिर से इसे तुम्हारा प्यार समझ बैठूंगी...
और एक बार फिर तुम्हें किसी पर दया करने की कीमत चुकानी पड़ेगी.

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

बगैर शीर्षक

रोज सुबह नहाधोकर पूजा करना, माथे के साथ ही थोड़ा सा सिंदूर अपनी मांग में बालों की ओट में ही कहीं लगा लेना. कुछ ऐसी ही चोरों जैसी शुरूआत होती है दिन की. यह सोचकर बहुत सकूं आता है कि जिसे समय से न छीन सकी कल्पना लोक में उस निर्मोही पर मेरा वश चलता है.
फिर भी भूल से जब लौट कर आती हूं अपने अस्तित्व की ओर, तो नजारा कुछ और ही होता है. मेरी नजर में सिंदूर महज लाल रेत है, जिसे हथियार बना कर पुरूष महिलाओं पर राज करना चाहते हैं. यह सोचकर ही अजीब लगता है कि एक मंगलसूत्र पहनने के लिए मेरे सर पर किसी पुरूष का हाथ होना जरूरी है. अरे भई, मैं नहीं मानती इन बातों को.
अगर मुझे मंगलसुत्र पसंद है, तो मैं बिना शादी के भी उसे पहन सकती हूं, क्यों किसी मर्द का मुंह तकूं....

फिर सहसा अपने भीतर ही कहीं पनप रहे विरोधाभास से डर जाती हूं. अगर मैं ऐसा ही सोचती हूं, तो क्यों मैंने खुद को इस लाल रेत के बंधन में बांध लिया है, क्यों उसे मांग मंे सजाने के बाद किसी की धुंधली सी सूरत मेरे मन को एक नर्म अहसास दे जाती है. क्यों मैं महज लाल रेत लगाने से यह सोच उठती हूं कि वह मेरा हुआ और मैं उस की. क्या उसे पाने के लिए एक यही रास्ता है मेरे सामने.

मेरे नारीवादी विचार उस समय अपने चरम पर होते हैं, जब मैं उस के बारे में नहीं सोचती। जब कभी घर पर मेरी शादी की बात चलती है, तो मैं जरा भी लचीलापन नहीं अपनाना चाहती. साफ कहती हूं कि शादी के बाद मैं कोई मंगलसूत्र या सिंदूर नहीं लगाउंगी, अपनी नौकरी नहीं छोडूंगी, रहूंगी तो वैसे जैसे मैं चाहती हूं.

हाल ही में एक रिश्ता आया, जिस में लड़का आर्मी में अच्छे पद पर था, लेकिन उन की मांग थी कि मैं अपनी नौकरी छोड़ कर लड़के के साथ रहूं. पैसे तो वो अच्छेे कमाता ही है, सो मुझे नौकरी की क्या जरूरत. मेरा एक ही जवाब था जितने पैसे लड़का कमाता है, मैं भी दिनरात एक करके उस से दोगुने कमा कर उस के हाथ में रखुंगी, बशर्ते वो अपनी नौकरी छोड़ कर घर संभाले. बस होना क्या था रिश्ता होते होते टूट गया. घर वालों के लिए यह एक सदमे से कम न था, लेकिन मेरे लिए तो मानो, विजयदश्मी का त्योहार हो.
खैर परेशानी मुझे कम से कम अपने इस व्यवहार या विचारो से तो कतई नहीं है, परेशान करने वाली वजह दूसरी है, जो मुझे कभी अपने होने का अहसास नहीं होने देती। उपर मैंने जितनी भी बातें कहीं, सभी उस समय धरी की धरी रह जाती हैं, जब बात उस शख्स की चलती है. न जाने मेरा आत्मसम्मान, मेरे विचार, मेरा अस्तित्व उस समय कहां गहरे गोते मारने चला जाता है। एक उसे पाने के लिए मैं सब कुछ कर सकती हूं, अपनी नौकरी छोड़ कर उस के परिवार की सेवा करना हो या मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहन दो गज का घूंघट निकाल घर में चुपचाप बैठना हो. मुझे ये सारी बातें उस समय सही लगने लगती हैं, क्यों, तो इस का जवाब मेरे पास भी नहीं है.

समझ नहीं पा रही कि मैं हकीकत में हूं क्या? वो पहली अनिता जो अपने अस्तित्व की सार्थकता के लिए किसी से भी भिड़ सकती है या किसी के लिए दीवानी एक बावरी सी लड़की जो सब कुछ भूला चुकी है....
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