मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

अमृता प्रीतम, यादों के झरोंखों से...


लाखों लोगों की भीड़ में किसी को होश न था, सब अपनी अपनी जान बचा कर निकलना चाहते थे, कोई दबेकुचले या मर ही क्यों न जाए किसी को कोई परवाह नहीं। जाने कितने ही बच्चे यतीम हुए, कितनी ही मांगों का सिंदूर उजड़ गया और कितनी ही कोख सूनी हो गई... बात भारत पाक विभाजन की है, हिंदुस्तान के इतिहास का न भुलाए जाने वाला दौर. चारों तरफ लोगों की हूक ने एक उमस सी पैदा कर दी थी. और ये उमस आसमान के कागज पर शब्दों सी जा छपी अमृता प्रितम की इन लाइनों में...

अज्ज आ खां वारिस शाह नू,
किते कबरां बिच्चों बोल
ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल।
इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे बैन
अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहन।

अमृता प्रीतम एक जानीमानी साहित्यकार, ने यह लाइनें रेल के किसी कोने में बैठ कर शायद इसलिए लिखी थी कि वह अपने मन को तसल्ली दे सके, लेकिन वह क्या जानती थी कि आने वाले दिनों में हिन्दुस्तान ही नहीं पाकिस्तान के लोग भी इस कविता को किसी धर्म ग्रंथ की तरह अपनी जेब में रखेंगे और पढ़ पढ़ कर जाने कितनी ही बार आंसु बहाएंगें। विभाजन से 28 साल पहले के क्रांतिकारी दिनों में 31 अगस्त 1919 को इस सो य सी लड़की ने जन्म लिया, पंजाब के गुजरांवाला (अब पाकिस्तान में) में. महज 11 साल की उम्र में, जब अमृता ने अपनी मां को सदा के लिए खो दिया, तब ही शायद वह जान पाई कि जीवन की सही धारा क्या है. पिता का स्वभाव बेहद कड़क, लेकिन उन की कलम को रूप, रंग और देह देने में उनका खासा सहयोग रहा.


लेखक पिता के साथ अमृता का बचपन लाहौर में बीता. पिता चाहते थे कि अमृता ईश्वर भक्ति पर कविताएं लिखे, लेकिन मां की मौत ने अमृता के मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा को समाप्त कर दिया था. जो अकेलापन उम्रदराज इनसान को भी हताश कर सकता है, अमृता ने उस पर बचपन में ही विजय पा ली. चाहे वह 11 साल की रही हो या 16 की अकेलेपन की तीखी कटार हमेशा उस के राह में रही और शायद यही वजह रही कि उन्होंने प्रेम की कविताएं लिखना शुरू कर दिया. जाहिर है भोगी हुई चीज को आधार बना कर लिखी हर पक्ंित सराहनिय होती है. और अमृता की कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी.


अमृता की पहली कविता इंडिया किरण में छपी और पहली कहानी 1943 में कुंजियां में. आज के इस दौर में भी जब दो लोग लिव इन में रहने से कतराते हैं, अमृता ने इस रिश्ते को उस दौर में जीया, जब औरतें महज सजावट की चीज हुआ करती थीं. सीधे शब्दों में कहा जाए तो अमृता अपनी शर्तों पर जीने वाली आजाद महिला थीं. आज के भड़काऊ जेंडर विषयों से दूर अमृता की लेखनी में एक शालीन स्त्री विमर्श था, जिस में वह किसी पुरुष से लडऩा या उस पर दोषारोपण नहीं चाहती थी, चाहती थी तो बस अपने जीवन को स्वयं जीने का हक . अमृता ने अपनी हर रचना में महिलाओं के लिए उदासीन पुरुष समाज को पेश किया।


मोहन सिंह की पत्रिका 'पंज दरया से अमृता ने अपनी पहचान बनाई। सन् 1936 में अमृता की पहली किताब छप कर बाजार में आई. लगभग एक साल बाद ही उन्होंने लाहौर रेडियो ज्वाइन कर लिया और अमृता को अपने बचपन का आंगन छोड कर दिल्ली आना पड़ा. यहां उन्होंनें आल इण्डिया रेडियो ज्वाइन किया.


अमृता ने करीब 100 रचनायें रचीं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण और आत्मकथा शामिल हैं। 'पांच बरस लंबी सड़क, 'उन्चास दिन', 'कोरे कागज', 'सागर और सीपिया', 'रंग का पत्ता', और सब से चर्चि‍त उपन्यास 'डाक्टर देव' शामिल है. पिंजर उपन्यास भारतपाक विभाजन के दुख को व्यक्त करता है, जिस पर हिंदी सिनेमा में एक फिल्म भी बन चुकी है.'

अमृता पंजाबी कविता की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक पहचान दिलवाने वाली कवयित्री हैं। उन्होंने जितना मार्मिक पंजाबी में लिखा उतना ही हिंदी में भी. साल 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाली वह पहली महिला थीं.

इस के एक साल के भीतर ही उन्हें पंजाब सरकार से पंजाब अकादमी पुरस्कार मिला। अमृता जितनी गहराई से लिखती लोग उन के उतने ही कायल होते रहे, नतीजतन साल 1982 में 'कागज के केनवास के लिए वह ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्‍मानित हुईं. इस के अलावा पद्मश्री और पद्मविभूषण स मान भी अमृता के मिले.

पंजाबी साहित्य को समृद्ध बनाने के लिए अमृता ने इमरोज के साथ मिल कर 'नागमणि साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकाली। इमरोज का कहना है कि साल 1966 से 2002 तक उन्होंने इस पत्रिका को चलाया. अपने नीजि जीवन में अमृता ने खासे विवादों का सामना किया. बचपन में मां को खो देने के बाद जब पिता ने 16 साल की उम्र में उन की शादी लाहौर के अनारकली बाजार में एक बड़ी दुकान के मालिक सरदार प्रीतम सिंह से कर दी. विभाजन के बाद जब वह हिंदुस्तान में साल 1957 में शमा पत्रिका के लिए काम करती थीं, तब उन की मुलाकात चित्रकार इमरोज से मुलाकात हुयी और उस दौर में बेबाकी और हिम्‍मत दिखाते हुए अमृता ने अपने पति से अलग होने का फैसला लिया. साल 1960 से वे साथ रहने लगीं.


इसके बाद का पूरा जीवन उन्होंने इमरोज के साथ में गुजारा। अमृता का इमरोज से कभी निकाह नहीं हुआ और वह इमरोज से उम्र में भी बहुत बड़ी थीं. जब इन सब पर आलोचनाएं होने लगी, तो इन सब से परे अमृता ने नारी के आदर्श रूप को जीया.अमृता का नाम ऊर्दू शायर 'साहिर लुधयानवी' के साथ भी जुड़ा अमृता ने खुद भी कभी इस रिश्ते से इनकार नहीं किया. अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में जब अमृता ने कहा कि जीवन में उन्हें महज तीन ही बार अपने भीतर की 'सिर्फ औरत को देखा है. उन में एक प्रसंग साहिर के साथ है.


जीवन के अवसादों को दूर करने के लिए वह महीनों तक मनोवैज्ञानिक की देखरेख में भी रहीं। इस बीच जब डाक्टरी सलाह पर वे परेशानियों और सपनों को कागज पर उकेरती, तो जाने कितनी ही नई अमृताएं उन में से झांकने लगतीं। अपने इस इलाज के दौरान अमृता ने फोटोग्राफी, नृत्य, सितार वादन, टेनिस वगैरह से भी दोस्ती की। दिल्ली में 31 अक्तूबर 2005 को उन का निधन हो गया, लेकिन उन का साहित्य और उन की रचनाएं आज भी लोगों के दिलों में जिंदा हैं।


(यह लेख कवि व पेंटर इमरोज से मिली जानकारी पर आधारित है।)








8 टिप्‍पणियां:

  1. अमृता जी ही थी जिन्होंने हमें पढने के लिए प्रोत्साहित किया। स्कूली जीवन में ही हम इनके लेखन के कायल हो गए थे और मुझे वो दिन भी याद है जब मैंने इनकी किताबें फोटोकापी करके पढी है। किताब हाथ लगी नही बस पढकर ही खत्म करते थे एक ही सीटिंग़ में। वैसे इनके जैसे लोग विरले ही पैदा होते है इस धरती पर। और इमरोज जी की तो बात ही कुछ और है।

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  2. हम भी अमृता जी से अत्यधिक प्रभावित थे. अपनी बेटी का नाम हमने अमृता रखा. जब बेटा हुआ तो उसका नाम प्रीतम रख दिया था.

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  3. सच में अमृता जी की रचनायें बहुत भावपूर्ण हैं, सोचने को विवश कर देती हैं।
    अच्छी प्रस्तुति है.......

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  4. अज्ज आ खां वारिस शाह नू,
    किते कबरां बिच्चों बोल
    ते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल।
    इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे बैन
    अज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस शाह नूं कहन।

    ye line itni achchhi lagti hain ki poochhiye mat . ek saans me poora lekh padh gaya. yoon to maine amrita ji samagra padhaa hai magar fir bhi har baar unke baare me padhkar lagtaa hai ki bahut kuchh nahi padh payaa abhi tak
    dhanyawad

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  5. मेरी राय में अमृताजी पिछले सौ वर्षों के भारतीय साहित्य की महानतम रचनाकार हैं। शायद एक महिला द्वारा महिला की जीवनी होने से या जो कारण हो, रसीदी टिकट के बाद यह मेरे द्वारा पढ़ी गई अमृताजी की सर्वोत्कृष्ट जीवनी है। लेखिका का जीवन आनंदपूर्ण हो, ऐसी मैं कामना करता हूँ।

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