शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

हर कवि मेरा दुश्मन सा क्यों है...


अगर आप इस ब्लाग पर इस उम्मीद के साथ आए हैं कि यहां आप को कुछ अच्छा पढऩे को मिलेगा, तो मैं आप से माफी चाहूंगी। क्योंकि इस ब्लाग के कर्ताधर्ता आजकल मानसिक विक्लांग्ता के शिकार हो गई हैं। वे किसी तुच्छ प्राणी के मोहपाश में फंस कर सब कुछ भुला चुकी हैं.
इस लिए अच्छे की उम्मीद करने वाले विजिटर से क्षमा चाहती हूं. ब्लाग का सहारा ले कर वे अपने मन की भड़ास को कम करने का काम कर रही हैं... ईश्वर उन की सहायता करे और बेतुकी बातों के लिए आप उन्हें माफ करें...
लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईष्र्या करते हैं या चुगली करते हैं
लोग या तो शिष्टïाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चाताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हंसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत करता है
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफूंदीयायी हुई चीज हो गई है-
रघुवीर सहाय की इन चंद पक्तियों ने मानों संपूर्ण सत्य को प्रकट कर दिया हो। जिस संदर्भ में मैंने इन्हें यहां लिखा है, हो सकता है सहाय जी ठीक उस के विपरीत इसे प्रस्तुत कर गए हों, लेकिन जो भी हो यह पक्तियां कहीं न कहीं हमारे रिश्ते के सच को भी ढ़ो रही हैं या शायद आज के स्वार्थी समाज में पनप रहे हर रिश्ते को।
सच ही तो है स्नेह, प्रेम, त्याग, संवेदनाएं ये सब तो अब बस कवियों के सुंदर प्रतिमानों सी कविताओं की शोकेस में ही नजर आती हैं। विश्वास की जगह अब विश्वासघात ने ले ली है और प्रेम की तुम जैसे भोगी, देह के पुजारियों ने.
फिर भी अकसर हवा के साथ कुछ आवाजें सहसा कान के परदों के पार चली आती हैं। सच्चे प्रेम की आवाजें, विश्वास की आवाजें, जो सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि सच्चाई इस अंधेरी दुनिया में अभी भी किसी कौने में छिप कर सांसे भर रही है... विश्वास भी मरा नहीं है वह उस के ही साथ कहीं है निरंतर ठंड़ास बांधने को...
फिर सहसा सोचती हूं कि अगर सच्चाई है, तो वह सदा रोती ही क्यों रहती है... इस सवाल का जवाब देने आगे आती है मेरे भीतर बैठी मेरी सच्चाई (तुम जिसे मारने की भरसक कोशिशें कर चुके हो) कि शायद सच्चाई को झुठ नजर ही नहीं आ पाता, क्योंकि हर काला झूठ सच का कंबल ओठे रहता है जैसे तुम, हमेशा खुद को निर्दाेष, बेचारा और सच्चा सबित करने में लगे रहते हो। धुमिल की कविता रामकमल चौधरी की कुछ पक्तियां पढ़कर तो ऐसा लगाता है मानों तुम्हारे लिए सालों पहले की गई भविष्यवाणी. जानना चाहोगे वे पक्तियां क्या हैं- 'एक मतलबी आदमी जो अपनी जरूरतों पर निहायती खरा था.'
त तुमने तुमने जो किया तुम जानों, लेकिन मेरी समझ से यह बात परे है कि तुम्हारी करनी की सजा भला मुझे क्यों। गलत तुम थे, धोखा तुमने दिया, विश्वास तुम ने तोड़ा, तो फिर ये सारे कवि हमेशा मेरे जीवन में विरह बादल से क्यों छाए रहते हैं. कोई भी बात या संदर्भ हो ये अपनी किसी न किसी पंक्ति के साथ आ खड़े होते हैं मश्तिष्क के मंच पर अपनी कविता प्रस्तुत करने. अब श्रीकांत जी को ही देख लो, यकायक आ खड़े हुए हैं यहां अपनी इन पक्तियों के साथ, लेकिन मैं भी कम दोषी नहीं हूं अगर वे अपनी कविता सुना कर मुझे दुखी करते हैं, तो भला मैं क्यों खुद को उन की कविता का भाव बना लेती हूं...
मेरे और औरों (तुम्हारे) के बीच
एक सीमा थी
मैंने जिसे छलने की कोशिश मैं ने ओरो (तुम्हारी) की शर्तों पर प्रेम किया।
अब श्रीकांत जी जब औरों की बात कर ही रहे थे, तो बताओ मुझे वहां तुम्हें और स्वयं को छोंकने की क्या जरूरत थी। पर करूं भी तो क्या अब तक जितनी भी कविताएं पढ़ी सब की सब मेरे पीछे पड़ गई हैं, कहती हैं कि मुझ से उन का आत्मीय संबंध है ठीक वैसे ही जैसे एक समय में तुम कहा करते थे, इसलिए ही तो अब उन पर भरोसा नहीं कि कहीं वे भी तुम सी कभी किसी और के साथ खड़ी नजर आएंगी. श्रीकांत की ही कुछ और पक्तियां मानों उन्होंने भी इच्छाओं को करीब से टूटते देखा है...
लेकिन एक बार उड़ जाने के बाद
इच्छाएं लौट कर नहीं आती
किसी और जगह पर घोंसले बना लेती हैं...
हां, महादेवी जी की कविताओं में अकसर अपनापे का भाव पनपता है, लेकिन अज्ञेय जी जिनकी कविताओं से मैं प्राय: उचित दूरी बना कर रखती थी, यह कैसा जुड़ाव है नहीं जानती, शायद यह भी तुम्हारे ही कारण है कि उन की कविताएं पढ़ते वक्त उक्ताने वाली लड़की को उन की कविताओं में अपनी पीड़ा के दर्शन होने लगे...

और घास तो अधुनातन मानव मन की तरह
सदा बिछी रहती है- हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे

द देखो देखो न कितनी सार्थक है यह पक्तियां मानों मैं हरी घास और तुम 'कोईÓ। आह, कविता का नाम तो याद नहीं लेकिन कुछ और पक्तियां दिमाग में घूम आई हैं अज्ञेय की...
मैं तुझे सुनूं,
देखूं, ध्याऊं,
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाककहां सहसा
अगर तुम इन्हें अज्ञेय के शब्दों में उकेरी गई मेरी कोरी भावनाओं का नाम दो, तो कुछ गलत न होगा। इसी कविता में उन्होंने कहा है 'छू सकूं तुझे, तेरी काया को छेदÓ सच पहले कभी मैंने अज्ञेय को अपने इतने करीब न पाया था. अरे उन की क्षणिका भी याद हो आई 'सांपÓ. याद तो होगी ही तुम्हें... पहली बार तुम्हें मैंने ही सुनाई थी, आफिस के जीने में... पर तब तुम ऐसे नहीं थे. क्या जानती थी नादानी में तुम्हें जो कविता सुना रही हूं एक दिन तुम उसे यूं अंगिकार ही कर लोगे...

महादेवी जी के बारे में क्या कहूं उन की कविताएं तो मानों मेरे भीतर कहीं घर बना कर रहती हैं. हर परिस्थिति में उन की कोई न
कोई कविता मुझे घेरे ही रहती है. पर दो कविताओं की तीन पक्तियां तुम तक पहुंचाना चाहती हूं
पहली-दूर तुमसे हूं, अखंड सुहागिनी भी हूं।

दूसरी और तीसरी-
तुम मुझमें अपना सुख देखो, मैं तुम में अपना दुख प्रियतम।

जातनी हूं कि तुम्हारा सच क्या है, लेकिन क्या करूं कभी उसे स्वीकार नहीं पाती। लगता है तुम वही हो, जिससे मैंने प्रेम सूत्र जोड़ा था, ये नया चेहरा तुम्हारा नहीं एक भ्रांति है. पर सच तो यह है कि तुम बदल गए हो. अरे नहीं तुम बदले कहां हो, तुम तो अपने सही रूप में हो... वैसे ही नीच जैसे तुम भीतर से हो. हां, कुछ दिनों के लिए तुमने कलेवर जरूर बदला था. ओह, फिर से वही पक्तियों के घेराव. इस बार पंत की कुछ पक्तियां हैं 'आह, सब मिथ्या बात...Ó कविता का नाम याद नहीं है शायद परिवर्तन है. लेकिन हां, परिवर्तन की कुछ और पक्तियां हैं...
शून्य सांसों का विधुर वियोग
छुडाता अधर मधुर संयोग
मिलन के पल केवल दो चारआह, विरह के कल्प अपार

इन पक्तियों में पंत जी ने आह नहीं लगाया, लेकिन जब मैंने इन्हें पढ़ा, तो आह स्वत: ही ओठों से फूट पड़ा। मिलन के पलों से कुछ और पक्तियां भी याद हो आई, लेकिन नहीं जानती कि किस ने लिखी हैं और किस कविता से हैं बस याद हैं. हो सकता है कि इन में कुछ गलती भी हो, लेकिन भाव वैसा ही शुद्ध है...
बालको सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह छिपा करनींद में डूब जाता हूं
बस अब और नहीं, मेरा यह चि_ïा कभी खत्म होने का नाम नहीं लेगा, ये कविताएं, तो कभी पीछा छोडेंगी नहीं, इसलिए मुझे ही हाथ को रोकना होगा. लेकिन सुनो कहने को बहुत कुछ है मेरे पास, कभी सुनने वाले बनों, तो जानूं...
अनु

मेरा अनोखा सपना


नागार्जुन की कविता आज सुबह से खूब याद आ रही है, चंदू मैंने सपना देखा. पहली बार में इस कविता का मतलब समझ नहीं पाई थी. बस तुकबंदी देखकर यह लगा था कि एनसीआरटी की किसी किताब की कोई कविता है. खैर हुआ यह कि रात को एक अजब सा सपना मुझे आया, जो इस कविता की तरह ही उलझा गया.

मैं छत पर लेटी थी, कि अचानक चांद का रंग लाल हो गया और फिर उस पर कुछ लिखा सा दिखने लगा, शायद किसी शख्स का नाम. हां, नाम ही तो था, उस का नाम जिस ने मुझ इसलिए छोड दिया, ताकी वह अपने घर वालों की खुशी से शादी कर सके. खैर शायद उस नाम का बोझ इतना था कि चांद नीला पड़ गया और लहराने लगा. कुछ ही देर में वह टूट कर मेरी चारपाई पर आ गिरा. मैं भाग कर पापा के पास गई और कहा, पापा देखिए चांद गिर गया. पापा ने कहा बावरी बेटी बाहर जा कर तो देख कितनी रोशनी है अगर चांद गिर गया, तो रोशनी कैसी. मैंने बाहर देखा, तो वाकई रौशनी थी बिलकुल पूर्णिम जैसी. लेकिन चांद आसमान से गायब था.
और मैं समझ गई कि चांद के सामने तारों को कोई देखता ही नहीं था, जब वह गिरा तो तारों को मौका मिला कि वह अपनी चमक बिखेर पाते. भीतर पापा के पास दोबारा गई, तो उन्होंने कहा यह है क्या इसे खोल कर तो देख. खोलती कैसे उस पर मेरे प्यार का नाम लिखा था. पापा ने हाथ से छीन कर उसे खोला, तो उस के भीतर से एक डस्टबिन और एक माउस निकला. इतनी देर में मेरी आंख खुल गई और मुझे याद आया कि आज शाम को आफिस से घर लौटते समय मुझे एक डस्टबिन और एक माउस खरीदने हैं.
अगर आप इस का मतलब समझ पाएं हों, तो कृपया मुझे भी अनुग्रहित करें...

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम

संभव 2009



शारीरिक व मानसिक चुनौतियों से जूझ रहे लोगों पर अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम

शारीरिक व मानसिक चुनौतियां झेल रहे बच्चों व उन के लिए काम कर रही संस्थाओं व लोगों के लिए नवंबर 2009 की 14 व 15 तारीखें खास हैं।

सालों से ऐसे लोगों के बीच काम कर रही संस्था ‘‘अल्पना‘‘ ‘एसोसिएशन फार लर्निंग परफार्मिंग आटर्स एंड नारमेटिव एक्शन‘ ने ‘संभव 2009‘ के तहत 14 व 15 नवंबर को पूरे दिन अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार व सांस्कृतिक कार्यक्रमों की झड़ी लगा दी है. विस्तृत कार्यक्रम यों हैः

14 व 15 नवंबर २००९

स्थानः मेन आडिटोरियम, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, मैक्स मुलर मार्ग, नई दिल्ली-३
समयः प्रातः ९.३० से प्रतिदिन
मुख्य अतिथिः श्री जयराम रमेश (केंद्रिय राज्य मंत्री, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार।)
प्रतिभागी देशः भारत, अफगानिस्तान, नेपाल, भुटान, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, कम्बोडिया, मलेशिया,
थाईलैंड, मोरिशस, नाइजीरिया.

अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक संध्या

14 नवंबर

स्थान: फिक्की आडिटोरियम, तानसेन मार्ग, नई दिल्ली - २
समयः सांय 6।00 बजे से।
प्रतिभागी देश: भारत ( अल्पना- नार्थ इंडियन ग्रुप, नार्थ ईस्ट इंडिया ग्रुप, ईस्ट इंडिया ग्रुप),
अफगानिस्तान, म्यांमार, नेपाल, थाइलैंड, बांग्लादेश।
मुख्य अतिथिः श्री मुकुल वासनिक,
केंद्रिय मंत्री, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता.
15 नवंबर
स्थान: स्टेन आडिटोरियम, हैबिटेट सेंटर, लोदी एस्टेट्स, नई दिल्ली-३
समयः सांय ६ ।00 बजे से.
प्रतिभागी देश: भारत (अल्पना- नार्थ इंडिया ग्रुप, वेस्ट इंडिया ग्रुप, साउथ इंडिया ग्रुप), नाइजीरिया,
मारिशस, भूटान , श्रीलंका, मलेशिया।
मुख्य अतिथिः श्रीमती गुरशरण कौर (प्रधानमंत्री डा.
मनमोहन सिंह की धर्मपत्नी, चर्चित समाजसेवी।)
विशिष्ट अतिथिः श्रीमती निरूपमा
राव (विदेश सचिव, भारत सरकार)
अध्यक्षताः श्री शेवांग फुनसांग (चैयरमैन, पब्लिक
इंटरप्राइजेज सलेक्शन बोर्ड.)

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

यह पीड़ामयी बयार

बह चली है कैसी,
पीड़ामयी यह बयार,
जो बुनती रहती है,
विपुल क्रन्दन अपार,
अनायास ही दे जाती है
अनचाहे मुझको
अश्रु उत्स उधार,
प्रणय का तुम्हारा चुंबन
मेरी स्मृति बराए जूं आहार,
हाय, नेस्ती छाई है
बन जीवन विहास.
उसकी वाय में घुलना तुम्हारा
ए मेरे अवरुद्ध श्वास,
आज भी दे रहा है मुझे
वही मिश्रित सा अहसास।
तुम ही कहो अब
प्रयण का वह पल,
कैसे भूलूं मैं
बन पलाश.
देखो तो,
तुम्हारा वह भोगी स्पर्श,
नित करता है मुझसे अट्टहास।
अनीता शर्मा

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

मेरी कुछ फालतु बातें...

कई बार भावनाओं का तेज प्रवाह शब्दों का कंगलापन बन कर सामने आता है और उसमें अगर वक्त ऊब की काई भी लगा दे, तो यह कंगलापन और भी बढ़ जाता है, इसलिए ही शायद समझ नहीं पा रही कि क्या लिखूं. फिर भी जो बन पड़ा ऊटपटांग लिख रही हूं, क्योंकि अगर मन में भरे इस दर्द को हल्का न किया तो निश्चित ही पागल हो जाऊंगी...
पहले सोचा था कि दोस्तों से इस बात को बांट लूं, लेकिन किसी के पास इन बेतुकी बातों के लिए भला समय कहां...
करवाचैथ बीत गया, लेकिन मेरे लिए तो मानों सांप की कैंचुली सा अभी भी बचा हुआ है.
दो दिन से गला है कि उम्मीद लगाए बैठा है कि तुम आओगे और उसे पानी की कुछ बूंदें दान कर जाओगे. इस की तमन्ना पूरी तो मैं भी कर सकती हूं, लेकिन क्या करूं मैं तुम जैसी नहीं हूं न कि अपनी ही कही बात से पलट जाऊं, मजबूरियों का नाम लेकर.
लगा था कि तुम आ जाओगे, पर क्या जानती थी कि एक बार फिर मैं गलत साबित हो जाऊंगी...
पर मैं हमेशा की ही तरह इस बार भी तुम्हें समझ न पाई. हर बार तुम मेरी उम्मीद से ज्यादा दर्द दे जाते हो. शायद इसलिए भी क्योंकि मैं हर बार तुमसे नेह भरे आचरण की उम्मीद कर बैठती हूं या फिर शायद तुम्हारी दया की...
बिना किसी मतलब या फायदे के तुम्हारा मुझ तक आना...
सच, यह तुम्हारा मुझ पर एक और अहसान होगा या एक और बार की गई दया...
इसलिए भले ही मैं प्यासी मर जाऊं, लेकिन इस बार मुझ दया मत करना। क्योंकि मैं फिर से इसे तुम्हारा प्यार समझ बैठूंगी...
और एक बार फिर तुम्हें किसी पर दया करने की कीमत चुकानी पड़ेगी.

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2009

बगैर शीर्षक

रोज सुबह नहाधोकर पूजा करना, माथे के साथ ही थोड़ा सा सिंदूर अपनी मांग में बालों की ओट में ही कहीं लगा लेना. कुछ ऐसी ही चोरों जैसी शुरूआत होती है दिन की. यह सोचकर बहुत सकूं आता है कि जिसे समय से न छीन सकी कल्पना लोक में उस निर्मोही पर मेरा वश चलता है.
फिर भी भूल से जब लौट कर आती हूं अपने अस्तित्व की ओर, तो नजारा कुछ और ही होता है. मेरी नजर में सिंदूर महज लाल रेत है, जिसे हथियार बना कर पुरूष महिलाओं पर राज करना चाहते हैं. यह सोचकर ही अजीब लगता है कि एक मंगलसूत्र पहनने के लिए मेरे सर पर किसी पुरूष का हाथ होना जरूरी है. अरे भई, मैं नहीं मानती इन बातों को.
अगर मुझे मंगलसुत्र पसंद है, तो मैं बिना शादी के भी उसे पहन सकती हूं, क्यों किसी मर्द का मुंह तकूं....

फिर सहसा अपने भीतर ही कहीं पनप रहे विरोधाभास से डर जाती हूं. अगर मैं ऐसा ही सोचती हूं, तो क्यों मैंने खुद को इस लाल रेत के बंधन में बांध लिया है, क्यों उसे मांग मंे सजाने के बाद किसी की धुंधली सी सूरत मेरे मन को एक नर्म अहसास दे जाती है. क्यों मैं महज लाल रेत लगाने से यह सोच उठती हूं कि वह मेरा हुआ और मैं उस की. क्या उसे पाने के लिए एक यही रास्ता है मेरे सामने.

मेरे नारीवादी विचार उस समय अपने चरम पर होते हैं, जब मैं उस के बारे में नहीं सोचती। जब कभी घर पर मेरी शादी की बात चलती है, तो मैं जरा भी लचीलापन नहीं अपनाना चाहती. साफ कहती हूं कि शादी के बाद मैं कोई मंगलसूत्र या सिंदूर नहीं लगाउंगी, अपनी नौकरी नहीं छोडूंगी, रहूंगी तो वैसे जैसे मैं चाहती हूं.

हाल ही में एक रिश्ता आया, जिस में लड़का आर्मी में अच्छे पद पर था, लेकिन उन की मांग थी कि मैं अपनी नौकरी छोड़ कर लड़के के साथ रहूं. पैसे तो वो अच्छेे कमाता ही है, सो मुझे नौकरी की क्या जरूरत. मेरा एक ही जवाब था जितने पैसे लड़का कमाता है, मैं भी दिनरात एक करके उस से दोगुने कमा कर उस के हाथ में रखुंगी, बशर्ते वो अपनी नौकरी छोड़ कर घर संभाले. बस होना क्या था रिश्ता होते होते टूट गया. घर वालों के लिए यह एक सदमे से कम न था, लेकिन मेरे लिए तो मानो, विजयदश्मी का त्योहार हो.
खैर परेशानी मुझे कम से कम अपने इस व्यवहार या विचारो से तो कतई नहीं है, परेशान करने वाली वजह दूसरी है, जो मुझे कभी अपने होने का अहसास नहीं होने देती। उपर मैंने जितनी भी बातें कहीं, सभी उस समय धरी की धरी रह जाती हैं, जब बात उस शख्स की चलती है. न जाने मेरा आत्मसम्मान, मेरे विचार, मेरा अस्तित्व उस समय कहां गहरे गोते मारने चला जाता है। एक उसे पाने के लिए मैं सब कुछ कर सकती हूं, अपनी नौकरी छोड़ कर उस के परिवार की सेवा करना हो या मांग में सिंदूर और गले में मंगलसूत्र पहन दो गज का घूंघट निकाल घर में चुपचाप बैठना हो. मुझे ये सारी बातें उस समय सही लगने लगती हैं, क्यों, तो इस का जवाब मेरे पास भी नहीं है.

समझ नहीं पा रही कि मैं हकीकत में हूं क्या? वो पहली अनिता जो अपने अस्तित्व की सार्थकता के लिए किसी से भी भिड़ सकती है या किसी के लिए दीवानी एक बावरी सी लड़की जो सब कुछ भूला चुकी है....

गुरुवार, 16 जुलाई 2009

शायद शीला दिल्ली को अपना नहीं मानती


सीधे शब्दों में एक छोटी सी बात रखना चाहूंगी। गर्मी लगातार बढ़ रही है, सूरज अपनी रोषनी से लोगों को जला रहा है, लगातार बिजली की कमी के चलते कटौती हो रही है, लेकिन देखने वाली बात यह है कि कितनी बिजली हम स्ट्रीट लाइट या रोड साइड एड पर खर्च कर देते हैं।

स्ट्रीट लाइट में तो फिर भी कम वाल्ट के बल्ब लगे होते हैं, लेकिन रोड के किनारों पर लगे विज्ञापनों या बस स्टेंड वगैरह पर लगे विज्ञापनों पर एक नहीं दो नहीं आप छः सात मरकरी लाइट को एक साथ देख सकते हैं.

तो कोई जाकर दिल्ली सरकार से पूछता क्यों नहीं कि यहां कि बिजली क्यांे नहीं काटी जाती। यहां पूरी रात लगातार लाइटें जलती रहती हैं यहां बिजली कटौती आखिर क्यों संभव नहीं है भई ?खैर सवाल जवाब से परे मैं शीलाजी के मष्तिष्क में बिजली कौंधवाना चाहती हूं. हमारी मुख्य मंत्री जी गर्मी में लोगांे को बिजली नहीं दे रही. करोडों पैसे यहां वहां बरबाद तो हो ही रहे हैं, फिर भी षीला सरकार कुछ पैसे खर्च करके बिजली बचाने के बारे में नहीं सोच रही.

पता नहीं क्यों वे रोड साइट विज्ञापनों, बस स्टेंड पर और स्ट्रीट लाइट के लिए सोलर ऊर्जा से क्यों कतरा रही हैं. वैसे तो खुद विज्ञापन दिलवाती हैं कि अपने घर में सोलर वाटर हिटर का इस्तेमाल करें और बिजली बचाएं साथ ही उस के प्लांटेषन पर खासी छूट और लोन तक दे रही हैं, लेकिन क्या उन की ये सारी बातें कोरी हिदायत भर हैं या फिर वे दिल्ली को अपना घर नहीं मानती.

अगर आप को इस के पीछे कोई ठोस वजह नजर आती है, तो कृप्या मुझे भी उस से अवगत कराएं

अनिता षर्मा

‘बित्ति बांधै डोरडी ठम्मा ठम, ठम्मा ठम‘



एक दौर हुआ करता था कि मां अपने बच्चों को घर में ठूंठती रह जाती थी, पर बच्चे चिलचिलाती धूप या कड़ाके की ठंड की परवाह किए बगैर यहां से वहां मारे मारे फिरते थे. वजह थी खेल.

बच्चे खेल खेल में एक गांव से दूसरे गांव तक पहुंच जाते या फिर सुबह से शाम होने तक एक ही गंेद से चिपके एक ही मैदान पर भागते रहते. उस दौर के किस्से अपनी मम्मी या पापा के मुंह से ही सुने हैं. उसी सुनहरे दौर का थोडा ही सही पर एक हिस्सा मेरे भाग्य में भी आया. चलो छुटते दौर की लंगोटी ही सही.

मुझे आज भी याद है नाना जी के गांव में भात्ता नाम का एक पागल हुआ करता था. हम बच्चों में सबसे बड़ा होने के चलते वह लम्बे समय तक हमारा मुखिया बना रहा. दो महीने की पूरी छूट्यिां वहां बिताने के चलते भात्ता से हमारा खासा लगाव था.

वह हर चैथे या पांचवे दिन हमें एक नया खेल सीखाता, लेकिन हां एक ऐसा खेल था, जो वह न जाने कब से भूला ही नहीं था. खेल का नाम था ‘बित्ति बांधै डोरडी‘ यह खेल भी उस ने खुद ही बनाया था. खेल में गांव के सभी हमउम्र बच्चे एक के पीछे एक खड़े होकर रेल के डब्बे बनते थे और इंजन का काम करता था खुद भात्ता.

बच्चों को उन की लंबाई के हिसाब से खड़ा किया जाता, जिस के चलते जो छोटे बच्चे जबरन खेल में घुसपैठ करते वे पीछे रह जाते. डब्बों के संयोजन के बाद षुरू होता था खेल.

भात्ता जोर से चीखता ‘बित्ति बांधै डोरडी‘ और हम सब पीछे पीछे बोलते ‘ठम्मा ठम, ठम्मा ठम‘ वेा यह बोलते ही भागना षुरू कर देता तो हम भी चाबी भरे रोबट से पीछे पीछे ठम्मा ठम, ठम्मा ठम कहते चल पड़ते. पूरे गांव का एक चक्कर, दो चक्कर, फिर तीन... और न जाने कितने ही चक्कर बच्चे लगा लेेते. जबरन घुसपैठ करने वाले जो छोटे बच्चे पीछे छूट जाते उन्हें आउट घोषित करते हुए घर जाने का आदेष दे दिया जाता, लेकिन जिद्दी बच्चे अगले चक्कर में फिर से घुसपैठ कर लेते.

सभी बच्चों में से अगर किसी के मुंह से गलती से भी गाली या कोई अपषब्द निकलता तो 2-3 दिन के लिए उसे भात्ता खेलों में षामिल नहीं करता था. दौड़ लगाने से लेकर कलाबाजी की कई तरह की प्रतियोगिताएं वह हमारे बीच करता ही रहता था.

भात्ता ही नही हम सब भी उस वक्त इस बात से दूर थे कि भात्ता अपने इस बेसिर पैर के खेल से हमारा षारीरिक विकास कर रहा था. इतना ही नहीं कई बार वह हमारे सामने कई अजीब से सवाल रख देता जिनके जवाब निकालने के लिए हम घंटों रेत पर उंगलियां घुमाते रहते थे, लेकिन जो जवाब उस से मिलता वह शायद ही कोई और दे पाता था.

लोग कहते थे कि भात्ता पागल है, लेकिन मेरी नजर में उस में दिमाग इफरात से था, जिस पर पागलपन का इफतरा लगा था. वरना नाना जी की हवेली की उस चोटी पर जिस पर बच्चों का जाना मना था, वह आसानी से न पहुंच पाता. वहां बंदरों के बीच षान से बैठकर वह हमारे लिए नए नए खेल कैसे बुन लेता था, मेरी समझ से यह आज भी परे है.

भात्ता के साथ मेरा कोई व्यक्तिगत जुडाव या संबंध नहीं था, लेकिन फिर भी न जाते क्यों मैं गांव जाते ही उसे ठूंठना शुरू कर देती. मेरी याद में उस से मेरे संवाद का कोई छुटपुट अंश भी होता, तो मैं उस पर पूरी कहानी लिख देती, लेकिन भात्ता की बातें सुनने के सिवाय मैंने शायद ही कभी उसे कुछ कहा हो.

पर मुझे भात्ता से स्नेह था. अगाध तो नहीं, पर स्नेह था जरूर. चाहे लेश मात्र ही हो... पर स्नेह की उपस्थिति जरूर थी. गांव से लोटने के पखवाड़े भरत बाद तक उस के साथ खेलने की ललक की भभक अकसर भीतर उठती थी. खैर, शहर की व्यस्त जीवनषैली में पहुंचते ही कब भात्ता गांव की सुनसान वनी में छिप जाता पता लगाना मुश्किल है.

जिंदगी के शायद 4-5 साल तक ही मैं उस का अनमोल सानिंध्य पा सकी। एक बार गांव जाने पर पता लगा कि वह किसी रात ट्रक के पीछे लटक कर जाने कहां चला गया. भात्ता पागलपन के इफतरे के साथ जाने कहां चला गया. आज जब घर पर बचपन की बात चली तो बचपन की यादों की हवेली से उस ने मुझे पुकार ही लिया. वह जोर जोर से कह रहा था ‘बित्ति बांधै डोरडी‘ और अनायास ही मेरे मुंह से निकल पड़ा ‘ठम्मा ठम, ठम्मा ठम‘

मैंने मम्मी से पूछा ‘‘ बित्ति बांधै डोरडी का मतलब क्या होता है.‘‘ उन की आंखों में एक अजीब सी चमक आ गई. उन्होंने मुस्कराते हुए कहां ‘‘भात्ता ?‘‘ उन के सवाल पर मैंने हां में सर हिला दिया.
‘‘ इस का कोई मतलब नहीं होता, वो पागल था. भला पागलों की बातों का भी कभी कोई मतलब होता है.‘‘ और वह उठकर चली गई.

लेकिन मैं जानती हूं इस बात का जरूर कोई अर्थ है। कोई गहरा अर्थ, जो ेषायद हम समझदारों के शब्दार्थ से परे है. शायद आप मुझे भी पागल समझे जो एक पागल की बातों में अर्थ को खोज रही है, पर इस पागलपन भरे अपनेपन की ही आज हम सब को जरूरत है. क्योंकि आज के इस दौर में जब अच्छे दिखने वाले लोग हमें दगा दे जाते हैं, तब उस समय का वह भोला भात्ता आज भी मेरे स्नेह से लबालब है, भले ही मुझ से दूर क्यों न हो।
बचपन का एक साथी जिसे लोग पागल कहते थे, यकायक यादों की अंधेरी कोठरी में टिमटिमाने लगा. मैं उस के विषय में कुछ ज्यादा तो नहीं जानती, लेकिन अपनी श्रृद्धा सुमन उस की यादों के पायदान पर अर्पित कर रही हूं. नहीं जानती कि वो इस वक्त कहां है, पर चाहती हूं कि जहां रहे खुष रहे...

अनीता शर्मा

बुधवार, 15 जुलाई 2009

एक पत्रकार की कहानी

हाल ही में हमारे एक और पत्रकार भाई की संदिग्ध हालातों में हत्या की खबर मिली. इन दिनों इस तरह की हत्याओं के मामले कुछ ज्यादा ही सामने आ रहे हैं. शायद इसी के चलते हमारे बास ने हमें हाल ही में एक दमदार स्टोरी करने से मना कर दिया. हमारी तैयारी पूरी थी कुछ लोगों की पोल खोलने की, लेकिन जैसे ही बास ने मना किया हमारे थोथे मीडिया जगत की ही पोल खुल गई कि खुद को निडर और कलम का सच्चा सिपाही कहने वाले हमारे मीडिया सैनिक कितने डरपोक हैं. पर जनाब हम नहीं हैं डरपोक. हम तो अपनी स्टोरी को कर के ही मानेगें.
पर कैसे? पैसे वैसे तो हैं नहीं और बास ने स्टोरी के लिए मना कर दिया तो अब कन्वेंस भी नहीं मिलेगा. छोड़ो भी यार अब कुछ तो तहलका मचाना ही चाहिए न. जब स्टोरी कवर कर लेंगें और वह हिट हो जाएगी, तो बास खुश होकर कंवेंस भी दिला ही देंगे. अब तो हम बास को बिना बताए स्टोरी करने की पूरी फिराक बना चुके हैं.
एक बार यह स्टोरी हो गई, तो मीडिया जगत में अनिता शर्मा का नाम चमक जाएगा. और अगर जान जाती है, तो जाए... साला जी कर भी कौन से झंड़े गाड़ देंगे हम. कम से कम मर कर कुछ दिन टीवी पर तो चिपके रहेंगे.... वैसे भी इस मनहूस इलैक्ट्रानिक मीडिया वालों को जाने हमारी सूरत से क्या परहेज है... कितना ही अच्छा लिख लो हमें स्क्रीन पर नहीं दिखाते. जनाब कहते हैँ कि हमारी आवाज पैनी है वीओ अच्छा नहीं जाएगा, स्क्रीन पर चेहरे के दाग दिख रहे हैं, चेहरे पर एक्प्रेशन नहीं हैं वगैरह वगैरह बहाने बना कर हमे उस स्क्रीन नामक सोने की चिड़ी से दूर ही बनाए रखते हैं.
अब आए दिन हमारे पत्रकार मित्रों की हत्या की खबरें आती रहती हैं. और जो स्टोरी हम करने जा रहे हैं उस में भी मौत का कोई कम डर तो नहीं. इसलिए ही हम स्टोरी करने से पहले ही एक सुंदर सी फोटो खिचवाएंगें और उसे हर मीडिया हाउस में भेजेंगें, ब्लाग पर लगाएंगे, फेसबुक, आरकुट हर सोशल नेटवर्क साइट पर उसे चिपकाएंगे. अरे भई अगर मर गए, तो मीडिया वाले हमारे दोस्तों को फोटो ठूंठने में मशक्कत नहीं करनी पड़ेगी न और कम मशक्कत वाली स्टोरी को करना हमारे भाई लोगों को ज्यादा ही पसंद है. और कहीं किसी ने हमारी कोई गंदी सी फोटो दिखा दी तो, नहीं नहीं... हम अपनी सुंदर से फोटो की सरल उपलब्धता का पूरा जुगाड़ कर के ही स्टोरी कवर करने जाएंगे. भई जिंदा रहे तो हीरो मर गए तो हीरो. यानी चट भी मेरी पट भी मेरी वो भी झटपट.
जब हमने मीडिया के पाठ्यक्रम में दाखिला लिया था, तो क्या जानते थे कि यहां इतनी भुखमरी है. हमें तो टीवी दिख रहा था और दिख रही थी उस पर हमारी सुंदर सी सूरत. पर जनाब ग्लैमर के चक्कर में मारे गए हम. वरना यहां पाठ्यक्रम खत्म होने के एक साल बाद भी महज 10 हजार ही कमा रहे हैं कहीं और होते, तो 40-30 पर हाथ पसारे ठाठ से रहते. लेकिन क्या करें मति जो मारी गई थी हमारी, जो डेढ़ लाख का कोर्स किया महज 10 हजार की नौकरी के लिए. हाय रे टीवी पर भी नहीं दिखे.
खैर, अब और नहीं. यह स्टोरी हो गई, तो तनख्वाह और रुतबा दोनों ही बढ़ेंगे. मर गए तो भी मीडिया के इतिहास में अमर हो जाएंगे. हम साबित कर देंगे कि हम डरपोक पत्रकार नहीं. हर समाचार पत्र, चैनल और रेडिया स्टेशन पर हम ही छाए होंगे. हमारी मिसाल दी जाएगी. मीडिया पर लिखी जाने वाली हर किताब में हमारा जिक्र होगा और हमें महान और निडऱ पत्रकारों की लिस्ट में शामिल किया जाएगा.
पर डर है, कहीं हमारी मौत को कवरेज ही न मिली तो? या हमारी स्टोरी को सराहा न गया तो? अरे धुत्त मिलेगी कैसे नहीं, हमारी स्टोरी धांसू जो ठहरी. आखिर काल गल्र्स के धंधे पर है, सैक्स से जुड़ी है, हिट तो होगी ही. पर आए दिन ऐसी खबरे छपती रहती हैं, हमारे पास भला क्या नया होगा?
अरे यार नया नहीं है तो न सही. हम खुद ही कुछ ऐसा जोड़ देगें जो स्टोरी को दमदार बना दे. हमारी बात पर सब यकीन करेंगें, आखिर हम पत्रकार जो ठहरे. अब सच्चे हों या झूठे पत्रकार तो पत्रकार होता है. हम ही क्या हमारे दोस्त भी ऐसे ही करते हैं.
हम खयालों में ही डूबे थे कि यकायक फोन बज उठा. अरे हमारे बास का फोन था. हमने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से सरपट सी आवाज कोनों में घुस गई ''कहां हो तुम? तुम ने जो स्टोरी परसों फाइल की थी उस पर केस हो गया है. भावे जी का कहना है कि तुमने उन से बात किए बिना ही उन्हें कोट किया है. आफिस पहुंचों एडिटर जी गुस्से में हैं और तुम से मिलना चाहते हैंÓÓ
हमें लगा कि हमारी स्टोरी कवर करने से पहले ही किसी ने कह दिया हो 'पैक अपÓ। हम मुंह लटका कर स्टोरी भूल भाल कर खुद को बचाने के उपाय ठूंठने की जुगत में लग गए.

( अनीता शर्मा )

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

त्रासदी भरी एक रात...


ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं-ट्रुं- ओह ! मैने फिर से सिर पकड़ लिया और बड़े बेमन से फोन उठाया। ''क्‍या है'' ? सामने से किसी एक चाहने वाले के वही चिंता भरे शब्‍द जो पिछले आधे घंटे से सुन रही थी, ''कहां पहुंची, दिल्‍ली में तो नहीं है अगर नोएडा है, तो वहीं रूक मैं लेने आता हूं, या ऐसा कर मेरे घर चली जा' मैने इस बार कोई जवाब नहीं दिया, बस चुप, निरुत्‍तर एक अजीब सी हंसी के साथ फोन रख दिया। हंसी शायद कुछ ज्‍यादा ही अजीब थी इसलिए बस में खड़े सभी लोग मुझे अजीब नजर से देखने लगे। अब ये ना पूछिएगा कि वो अजीब नजर कैसी थी, क्‍योंकि जनाब जवाब में मैं फिर वही अजीब हंसी बिखेर दूंगी। इस अजीब- अजीब को समझने के चक्‍कर में आप भी अजीब चक्‍कर में फंस जाएंगे। 13 सितंबर 2008 को ऑफिस से फोन आने का जो सिलसिला शुरु हुआ वो दो दिन बाद तक उसी तरह चलता रहा। खैर, मैं उस रात मैं 8.40 पर जा पहुंची बाराखम्‍बा, ठीक वहीं जहां ब्‍लास्‍ट हुआ था। पहुंचने से पहले मन में एक टीस थी जो निरंतर रुआंसी को उत्‍पन्‍न कर देती और मैं टपकने से पहले ही खारे आसुंओं का घूंट भर लेती। जब बस से उतरी तो चारों ओर वही 'अजीब' सी चहल पहल। लड़के-लड़की का एक जोड़ा उस भीड से निकलकर आ रहा था, जिनहें देखकर ऐसा लगा मानों सिनेमाघर में कोई शो अभी खत्‍म ही हुआ हो.... यह भी कुछ अजीब ही लगा। मन में उठ रहे कई सवालों के साथ मेरा एक-एक कदम दस-दस मन का हो चला था, हाथ न जाने क्‍यों बार-बार बालों में जा रहे थे और होंठ दांत के नीचे। 30-40 कदमों की यह दूरी आखिरकार खत्‍म हो ही गई और मैनें खुद को पाया संवेदनाओं के एक अथाह समुंद्र के सम्‍मुख जिसे बिना किसी नाव और पाथेह के मुझे पार उतरना था।
ठीक सुलभ शौचालय के सामने बीच में कुछ जगह खाली छोड़ चारों ओर इंसानों की झड़ी सी लगी थी, कुछ नौटंकी करने वाले अपने कैमरों के साथ शौचालय के छतनुमा मंच पर जा विराजमान थे और निरंतर अपनी अभिनय कला को उभारने में लगे थे। मैं उनके अभिनय के गुर सीख रही थी कि सहसा कानों में किसी की गर्म शीशे सी आवाज ने दस्‍तक दी 'यह त्रासदी...' किसी संवाददाता की आवाज थी शायद। आगे उस आवाज ने क्‍या कहा मैने नहीं सुना.... मेरे कानों ने जो शब्‍द देखा वो था 'त्रासदी' फिर क्‍या था कानो देखा सच कहां होता है ? सो आंखों ने भी उसे तलाशना शुरु कर दिया। मैने देखा वहां एक नहीं कई त्रासदियां पसरी पड़ी थी, गहरी नींद में... जिनकी किसी को भनक भी न थी।
कोई हाई-फाई से दिखने वाले फोटोग्राफर साहब आकर कहते हैं ' साले... छोटे छोटे पटाखे छोड़कर हमें परेशान करते हैं... करना ही है तो कुछ बडा करो'। और इसी के साथ मेरी नजर आकर टिक गई इस नई त्रासदी पर। जाहिर है उन जनाब को वहां खून से लथपथ लाशें और रोत बिलखते गरीब चेहरे नहीं मिले, जिनकी तस्‍वीर उतारकर वे पैसे बना पाते। जरा मुंह घुमाया नहीं कि एक और त्रासदी मेरा रास्‍ता रोके खड़ी थी। तीन पुलिस वाले सबके नाम बताना कुछ सही नहीं लगता पर हां एक जनाब जो बहुत ज्‍यादा बोल रहे थे उनकी राशी से वे सिंह थे और बातों न जाने क्‍या थे। तीखी और ऊंची आवाज में उसने कहा 'बहन चो...कहते हैं एक घंटा लेट है पुलिस अब पुलिस क्‍या करे जब पता चला तो चले आए...। इतने पैसे नहीं देते जितने सवाल पूछते हैं, जिसे देखो हमारी ही कॉलर के ऊपर लपकता है'। फिर पता नहीं कितनी बार उसने मीडिया वालों की मां-बहन एक कर दी।
मन खट्टा हो गया, मानों इमली खा ली हो... नहीं, नहीं मानो खाने के बाद मिर्च वाली खट्टी डकार, ओह ! सोचा अब तो मैट्रो से घर की राह ली जाए, पर क्‍या जनाती थी कि आगे एक और त्रासदी टकटकी लगाए मेरी राह देख रही है। जनाब किसी बड़े अखबार के पत्रकारों का गुट खड़ा था नाम नहीं जानती कि कौन कौन थे, पर हां, वो जरूर सुना जो वे बतिया रहे थे 'जरा सोचो... क्‍या होगा हमारे देश का जहां पुलिस के पास निशान लगाने के लिए चॉक न हो, फुटपाथ के पत्‍थरों से जो बाउंड्री लाइन बनाए वहां आतंक से कैसे रुक सकता है।' उनकी बातों में कोई मजेदार त्रासदी नहीं दिखी तो सोचा पैदल पैदल ही निकला जाए.... कि अचानक मैं एक बच्‍चे से टकरा गई, बड़ी फैली आंखें डबडबाई सी, पतले और सिकुडे होंठ... मुस्‍कुरा रहे थे। उसने हाथों में गुब्‍बारे पकड़ रखे थे। अरे, ये तो एक और त्रासदी आ चिपकी मुझसे...। मैने उसे हटाना चाहा पर वो बच्‍चा आज अचानक ही लाइम लाइट मे आ गया – क्‍यों ? अरे भाई त्रासदी की वजह से। छोटी सी उम्र में गुब्‍बारे बेचता है, न जाने क्‍या कारण रहा होगा इसका ? पर इस बारे में सोचने का वक्‍त किसके पास है। यहां तो सभी ' सबसे आगे, सबसे तेज' और 'खबर हर कीमत पर' जुटाने में लगे हैं। सो, कई काले मुंह वाले डिब्‍बों को उस नन्‍हीं सी त्रासदी पर फोकस कर दिया गया, और कान मरोड़े चमगादड़ उसके मुंह के आगे अड़ा दिया, बेचारा बोलता रहा। करता भी क्‍या, आज तो दिन ही त्रासदी का था। मैं कुछ ज्‍यादा ही संवेदनशील हूं, मन भर आया तो वहां से पैर पटककर चल दी।
अब मुझे कानों से देखे शब्‍द 'त्रासदी' पर विश्वास हो आया था, पर यह त्रासदी तो भयानक भूत सी हर जगह मेरे सामने आकर खड़ी होती। जब मीडिया के चीचड़ उस नन्‍हे बच्‍चे से बातों में चिपक रहे थे तभी पुलिस के कोई बड़े अधिकारी वहां आ गए और छिपकर पीछे जा खड़े हुए। थोड़ी देर में जनाब चलते बने। हो गया उनका निरीक्षण पूरा। उम्‍ह...
मैने फिर पैर पटके और वापस चली ही थी कि दो ट्रैफिक पुलिस रॉंग साइड बिना हैलमैट चले आ रहे थे और जहां मुड़ना मना था वे शहंशाह उसी राह से चल दिए। एक ही घंटे में अचानक से इतनी सारी त्रासदियों का सामना करने के लिए मैं तैयार न थी। सो सिर गढाकर वहीं फुटपाथ पर बैठ गई, कि अचानक से एक अजनबी त्रासदी ने दस्‍तक दी। कंधे पर हाथ रखा और कहा... 'ग्राहक नहीं मिला क्‍या? कोई बात नहीं, बता कितने लेगी...? मैने सिर उठाकर देखा तो एक सभ्‍य से पुरुश मेरी ओर लार भरी निगाह के साथ लपलपा रहे थे। कोई उत्‍तर ना पाकर उन्‍होने कहा, 500 रूपए ले लेना, पर सुन जरा जल्‍दी चल ना...। मेरे मन में एक तेज घृणा उत्‍पन्‍न हो आई उस सभ्‍य पुरुश के लिए, उसकी अतृप्‍त भूख के लिए, उसके लार टपकाते अंगों के लिए जो बिना वक्‍त जाने कहीं भी उत्‍सुक हो उठते हैं।
मैं उठी तो, यह त्रासदी कुछ देर तक पीछे आती रही। अब मेरे लिए इतने बोझ के साथ चलना मु‍‍श्किल हो रहा था, कि अचानक बस आई और मैं उसमें जा बैठी। बस में भी कई त्रा‍सदियां डंडे पकड़े खड़ी थी, सभी की निगाहें देर रात अकेली लड़की पर थी, मुझे लगा समाचारों में जिस दिल्‍ली के दुखी होने की बात की जा रही है वह दिल्‍ली तो कहीं और है यह तो नहीं हो सकती। बस में तेजी से गाने की ध्‍वनि रह रह कर छू जाती... 'दुनिया गई तेल लेने...' मैनें आंखें बंद कर ली।
दरअसल, सच तो यह था कि किसी को इन धमाकों से कोई सरोकार न था, सभी अपनी अपनी त्रासदियों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। लगता है कि इस शहर में आदमी तो है ही नहीं, जीवन, भावनाएं, संवेदनाएं सभी बाजारों के बड़े शो-रूमों के शोकेसों में बंद हैं, जिन्‍हें गाहे-बगाहे नुमाइश के लिए खोल दिया जाता है। असल में तो यहां रहने वाला हर शरीर एक त्रासदी की सांस भरता है। जो अक्‍सर छूट कर अखबारों की सुर्खियों में परस जाती हैं...

अनीता शर्मा

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

बहकही न इहीं बहिनापूरी


हाय राम ये क्या हुआ! एक और बलात्कार। न जाने ये आदमी इतने भूखे क्युं होते जा रहे हैं कि अपनी औलाद तक को नहीं बक्षते। कई बार तो इनकी निक्कर से टपकती दर्जनों-लिटर लार को देखकर मैं भी घबरा जाती हूं कि कहीं मैं ही तो इनका अगला षिकार नहीं और मैं हूं भी तो एकदम दुबली पतली। एक बार हाथ पकडा और चल मेरे भाई, या अल्लाह ये मेरे मुह से कैसे निकला। ये लोग भाई कैसे हो सकते हैं ये तो कसाई होते हैं...

जो हर लडकी को बहन बनाकर उसकी इज्जत को इस कदर संभाल कर अपने पास रखतें हैं कि दूबारा वह खोने का डर ही न रहे और लडकी षांती से घूम सके. याद है मुझे ‘बिहारी’ का एक दोहा-
‘बहकही न इहीं बहिनापूरी...
...ज्यों चील घोंसला मांस’

मतलब इन लोगों के बहन बहन कहने पर मत जाना इनका बहन कहना उतना ही सुरक्षित है जितना कि चील के घोंसले में मांस होता है। आज अगर बिहारी जी यहां होते, तो मैं उनके चरणो में गिर जाती कि आप इतने विद्वान है, तो जरा हमें यह भी बता दीजिए कि इन बिना बडे दांतों वाले ड्रेकुलाओं को इतनी भीड में हम भला पहचाने तो कैसे ?

हर शाम एक डर के साथ आफिस से बाहर निकलकर बस में बैढ जाती हूं, पर एक डर न जाने क्युं बिन बुलाए पीछे पीछे आता रहता है। क्या करूं बेषर्म जो ठहरा, कितनी बार उसे धमकाया है कि मेरे पीछे न आए, पर वो कम्बख्त है कि उस पर जूं भी नहीं रेंगती।

खैर ये सोचकर सब्र कर लेती हूं कि डर तो मेरे साथ है अकेले होने से अच्छा किसी को साथ लेकर ही चलो। उस डर के पीछे सहमी सी जो औरत आपको आती नजर आ रही है न वो कोेई और नहीं मेरी अपनी लज्जा है पर क्या करूं इस कम्बख्त डर ने उसे पीछे छोड दिया। न जाने ये नंग्गे भूगे आदमी इस औरत का क्या करेंगे। वह रह भी तो पीछे जाती है न।

खैर मैं तो चलती जाती हूं चाहे किसी भले आदमी को भी गाली देनी पडे मैं राह में सब करती जाती हूं। और मेरी बेषर्म लज्जा मुंह लटकाए पीछे पीछे चुपचाप चलती रहती है वैसे भी उसे चुप रहने को ही कहा है मैनें उसी की वजह से इस डर ने मेरा पीछा करना जो षुरू कर दिया है अगर वो न होती तो मुझे किसी से डरने की क्या जरूरत पर वो है कि मेरे पीछे पडी रहती है कि मैं एक लडकी हूं इसलिए मेरे साथ उसका होना जरूरी है। कई बार सोचती हूं कि यह लज्जा अगर हम लडकियों कि जगह लडको का गहना होती तो षायद ये सारी नोबते आती ही नहीं और मुझ जैसे न जाने कितनी ही लडकियों को बेमन से अपने पीछे आते डर को सहना न पडता।

अनीता शर्मा

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

सफीक का हुनर मानों उधार का पैसा


क्या आप ने कभी दीवार से हार्न बजाने की आवाज सुनी है या फिर कभी आप के कांवकांव करने पर आसमान में कौवे इकट्ठे हुए हैं. आप सोच रहे होंगे कि यह सिर्फ फिल्मों में होता है, पर यकीन मानिए एक ऐसा शख्स है, जो यह सब कर सकता है. पर किसी हिन्दी फिल्म का हीरो नहीं है, वह है बनारस के दूल्हेपुर गांव में दुपट्टे रंगने वाला सफीक रंगरेज.
सफीक 80-90 तरह की आवाजें अपने मुंह से निकाल सकता है. चाहे गाय, बकरी, मोर, घुंगरु, गाड़ी का हार्न, हैलिकोप्टर, रेल, आरकैस्ट्रा के ड्रम की आवाज हो या फिर सालों से बेकार पड़े किसी टेप की वह इतनी सफाई से सारी आवाजें निकालता है कि बस पूछिए मत. लेकिन इतने अच्छे हुनर के होते भी सफीक गरीबी में जी रहा है. बनारस का नाम ऊंचा करने की उस की इच्छा को सरकार ने अनसुना कर दिया है. वैसे भी भारत में कहां किसी गरीब को अपने हुनर के सहारे बढऩे का अधिकार है. गरीबों का बस एक ही काम है यहां, अपने दोनों हाथों के इस्तेमाल से दो जून की रोटी कमाना.
पिछले 8 सालों से सफीक रंगरेज अपने इस हुनर के बल पर लोगों को हंसाने के साथसाथ हैरान कर देता है. दातों तले उंगली ला देने वाले इस हुनर के लिए सफीक ने कोई कड़ी मेहनत नहीं की है. सफीक का कहना है '8 साल पहले मैं सुबह अपने काम पर जा रहा था कि अचानक मेरे कानों में चिडिय़ा की आवाज पड़ी. मैं ने मस्ती के लिए उसे कापी करना चाहा. इस के बाद तो जो हुआ उस पर मैं खुद हैरान हो गया. मुझे लगा शायद मैं बीमार हो गया हूं.Ó वहां से काम पर जाने की बजाए सफीक वापस घर आ गया और घर पर सभी को उस ने चिडिय़ा की आवाज अपने मुंह से निकाल कर सुनाई. घर के सभी लोगों ने भी उस से यही सवाल पूछा 'तेरी तबियत तो ठीक है न?Ó सफीक को अंदाजा हो आया था कि उसकी जिंदगी अब नया मोडï लेने वाली है.
इस के बाद तो सफीक की जिंदगी ने मानों चिडिय़ा से पर उधार ले लिए हों... उस ने कई तरह की आवाजे निकालनी शुरु कर दी. एक छोटा सा रंगरेज जिला स्तर तक कार्यक्रम देने लगा. जहां जाता लोग उसे खासा पसंद करते, लेकिन उधार के परों पर ज्यादा लंबी उड़ान नहीं भरी जा सकती. जितने शो उस ने करे उन में सिर्फ 20 फीसदी का ही उसे पैसा मिला और जितना मिला उसे देखकर कोई भी कलाकार निराश होता. कुछ इसी तरह से अमीर लोगों ने सहायता के नाम पर उस का खूब लाभ उठाया. फिर भी सफीक अपने हुनर से कमाना चाहता था.
वह अपने हुनर के सहारे न्यूज टीवी तक तो जा पहुंचा, लेकिन आगे का रास्ता उसकी भूखी गरीबी खा गई. विदेशों में तो लोग अपने किसी हुनर पर मश्हूर हो जाते हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे देश में हुनर की कद्र नहीं होती, होती है, लेकिन वह किसी पैसे वाले के पास हो तब. कोई गरीब अगर अपने हुनर के बल पर कमाना चाहे, तो उसे मिलते हैं धक्के और भूखा पेट. यह बात सफीक के जीवन से साबित होती है.
सफीक दिन में 200 रुपए कमाता है, जिन में से 100 रुपए वह काम पर और 100 रुपए घर पर देता है, जिन से 10 लोगों का पेट पाला जाता है. उस का सपना अमिताभ बच्चन से मिलने का नहीं है वह चाहता है कि उस के हुनर को देख कर खुद जानी लीवर उस से मिलने आएं.
सालों पहले ही पढ़ाई छोड़ चुका सफीक अपने हुनर की बदौलत बनारस का नाम आगे बढ़ाना चाहता है. इस के लिए वह बनारस सरकार तक से मदद की गुहार लगा चुका है, लेकिन सरकार की नींद बहुत गहरी है उस में तनिक भी बाधा न आई. सरकार की तरफ से उसे किसी तरह का कोई सहयोग नहीं मिला, तो सफीक ने अपने दम पर कोशिशें करनी शुरु कर दीं.
वह मुंबई पहुंच गया इस उम्मीद से कि वहां जरूर कोई उस के हुनर को पहचानेगा और वह अपने जीवन की सारी परेशानियों से नजात पा लेगा. सफीक का कहना है कि सभी को उस का काम पसंद आया, लेकिन किसी ने भी उसे काम करने का मौका नहीं दिया, क्योंकि उसे पास आर्टिस्ट कार्ड नहीं था, जिसे बनावाने में लगभग 10,000 रुपए का खर्च आता, जो कि सफीक के पास नहीं थे.
फिर भी सफीक मेहनत से नजर नहीं चुराता और वह लगातार कोशिशें कर रहा है. हाल में चुनाव के दौरान उसे लखनऊ में कुछ नया काम मिला है, जिस में वह नेताओं के लिए प्रदर्शन करेगा. अब सफीक को यह बात समझ आ गई है उसे अपने हुनर को सब के सामने लाने के लिए सरकार की आस छोड़ खुद ही प्रयास करने होंगे. सफीक को भी यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी होगी कि उस का हुनर उधार के पैसे जैसा ही है, जिस से लाभ पाने के लिए उसे खासी मश्क्कत करनी होगी.
(यह लेख सरस सलील में छप चुका है, लेकिन काफी बातें जगह की कमी के कारण काट दी गई।)

(अनिता शर्मा)

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

मेरे गुन-ओगुन गिनों न गोपीनाथ

बस के बारे में मै तो बस इतना ही कहता हूं
किजे चित सोई रहे निज पतितन के साथ मेरे गुनओगुन गिनों न गोपीनाथ
(ब्लू-घोस्ट) मै तो नित यही प्राथना करता हुं किः-
हे! संहारक मेरी रक्षा करना। बचपन से हमें पढाया और समझाया गया कि जीवन का स्वामी उपरवाला है और आज मुझे इस बात का सही मतलब समझ में आया है, आखिर जो गाड़ी आपके उपर से निकलेगी वही तो प्राणो की स्वामिनी होगी। तो हुई ना जान उपरवाले (ब्लूलाइन बस के ड्राइवर) के हाथ में, और साथ ही साथ पैरों में भी कि अगर सही वक्त पर ये ब्रेक नहीं दबाएंगे तो मेरे प्राण पखेरू इस तरह उडेंगें के जैसे उन्हें मेंरा शरीर रूपी पिंजरें में से किसी के पसीने वाले जूतो सी बू आ रही हो और वह खुलें भी पहली बार हो।
कहीं ब्रेक की जगह पर एक्सीलेटर दब गया तो मेरे प्राण उडेगें नहीं बल्कि उनके टायर रूपी कडों में एक और नग की तरह जड जाएंगें। मैं जब भी घर से निकलता हूं तो मेरी यही प्रार्थना होती है कि ऐ परमात्मा इन तेज दौडती इश्वरीयषक्ति वाली वाले ‘‘ मौत के फरिश्तों’’ की एक दूसरे को अधिक से अधिक खून पीने के लिए उत्साहित करती पी-पी की तेज आवाज में अगर मेेरी ये दबी सी आवाज़ सुन पा रहे हो तो मेरा सामना किसी ब्लूलाइन बस से मत करवाना हे! दीनानाथ मेरे मन में भूल से भी कभी किसी ब्लू लाइन बस को ओवरटेक करने का आत्मघाती विचार ना आए और अगर कहीं मै गलती से उन्हें ओवरटेक कर भी जाउ तो तुम उनके दिमाग को ठंडा ही रखना, उनके दिल में प्रतिशोध की भावना का बीज पनपने ना देना, उनके मन का ऐसा विचार मेरे लिए जानलेवा साबित हो सकता है। इस कलयुग मे यह बस के ड्राइवर संसार को सच्चाई का आभास दिलाते रहते है कि भगवान और मौत को कभी नहीं भूलना चाहिए।
पानी मे रहकर मगरमच्छ से बैर अच्छा नहीं, मुझे अभी जीना है। इसलिए सड़क पर चलते हुए मै इनकी इस धमकी को कभी न भूलुगां ‘‘करपा उचित दूरी बनाए रखें’’अन्यथा हमें दोष न दें। वैसे भी इन्होने यह घोषणा कर रखी है कि ‘‘या तो यूं ही चालेगी’’। देख लो भाईजान अगर जान प्यारी है तो इनकी बात मान लों नहीं तो भुल जाओ के जान नाम की भी कोई चिडीया होती भी है। अगर हालात ऐसे ही रहे तो दिल्ली की सड़कों पर होर्डिंग टंगे नजर आएंगे ‘प्लीज कीप अवे फ्रोम ब्लूलाइन बसेज़, एंड सेव योर लाइफ’। ये सोचता हूं कि अगर अरस्तु आज जिंदा होते तो ‘राज्य एक आवश्यक बुराई है ’ वाली अपनी बात को ‘ दिल्ली वालों की मजबूरी है, अभी ब्लूलाइन ज़रूरी है।’ कर लेते शायद आज के संदर्भ में ज्यादा सटीक होती।
भारत मल्होत्रा का यह लेख उन्होंने करीब महीनो पहले लिखा था, किसी अखबार में तो नहीं छप पाया, लेकिन प्रांसगिक आज भी उतना ही है जितना तब था . भारत वर्तमान में क्रिकखबर डाट काम www.crickhabar.com से जुड़े हैं, आप अगर उनसे संपर्क करना चाहें तो उनकी इमेल आईडी है- bharatmalhotra83/gmail.कॉम इसके अलावा उनका ब्लाग भी है जहां आप उनकी अन्य रचनायें kucchbaten।blogspot.com bharatmalhotra-bhanu.blogspot. कॉम देख सकते हैं।

सोमवार, 6 अप्रैल 2009

कंप्यूटर से मुझे बचाओ

कंप्यूटर... ओह, यह शब्द सुनते ही मैं झल्ला जाती हूं। एक ऐसा नाम, जो मेरी जिंदगी में खासी अहमियम रखता है, लेकिन फिर भी मैं इस नाम से चिढ़ती हूं. जनाब, अब ये न पूछ बैठिएगा कि इतनी अच्छी चीज से मैं भला क्यों चिढ़ती हूं ? क्योंकि मैं इस का कोई कारगर जवाब न बना सकूंगी.
मेरे कंप्यूटर से चिढ़ने की कई वजहें हैं, जैसे जब दिनभर की थकान के बाद रात को बिस्तर पर मैं अपने दिन का कच्चाचिट्ठा जांचने की तैयारी करती हूं, तभी अचानक किसी पोर्टल का एक ब्लैंक पेज मेरी आंखों के सामने खुल जाता है, जहां एक छोटे से बक्से में कर्सल लिपलिपाता है मानो लगातार मुझे कुछ टाइप करने को कह रहा हो. मैं घबरा जाती हूं... अब क्या करूं? सांसे तेज होती ही हैं कि सहसा मुझे याद आता है, ‘अरे, मुझे अब इस बक्से में कुछ लिखना पडे़गा, तभी तो मेरा दिमाग उस बात को सर्च कर के दिखा पाएगा। बिना किसी यूआरएल के कोई फाइल दिमाग में सर्च कहां होती है...‘इस पर मैं झल्ला जाती हूं, पर करूं भी तो क्या? अब दिमाग है कि बिना कोई शब्द या यूआरएल डाले कोई रिस्पांस ही नहीं देता.
इधर कुछ दिनों से मुझे एक नई परेशानी ने घेर लिया है। बिना शब्द डाले अगर गलती से कुछ ऐसावैसा सोचने लगती हूं, तो यकायक एक नई विंडो मेरी आंखों के सामन खुल जाती है, जिस पर लिखा होता है ‘दि पेज केन नाॅट बी ओपन‘ और मैं यह सोच कर कि मेरा दिमागी संतुलन डगमगा गया है, सोने का मन बना लेती हूं। पर मेरी ऐसी किस्मत कहां कि यह हाइटेक दिमाग मुझे निंद्रा सुख लेने की अनुमति दे दे. जनाब, पलकें बंद होती नहीं कि एक और विडो खुलती है, जिस में मेरे दिमाग में कई भयंकर वायरस होने के संकेत दिखाई देने लगते हैं. मैं सकपका जाती हूं, क्या करूं, क्या न करूं... इतने में वह विंडो अपनेआप बंद हो जाती है.
अब और क्या कहूं आप से... कल तो गलती से मैं अपने उस दोस्त के बारे में सोचने लगी जिस से हाल ही में मेरी लड़ाई हुई थी और मंै ने उसे बहुत भलाबुरा कहा था। अब जरा देखिए तो यह कंप्यूटर यहां नहीं आता. अरे, आए भी क्यों यहां मुझे उस की जरूरत जो है. इस की इन्हीं बातों पर मैं गुस्से से भर जाती हूं. ये मेरे लिए इतना भर नहीं कर सकता कि एक पल के लिए मेरे हाथों में कन्ट्रोल जेड का बटन दे दे ताकि मैं अपनी भूल सुधार सकूं.
कितनी बार सोचती हूं कि इस मतलबी कंप्यूटर को छोड़ दूं, पर यह कम्बख्त कहां मुझे छोड़ता है। दिमाग पर इस कदर हावी है कि किसी का चेहरा देख कर सोचती हूं इसे तो फोटोशाप में डाल कर थोड़ा सा कर्व कर देना चाहिए, बेचारा काले से गोरा हो जाएगा. कभी अपने चेहरे पर उभरा कोई दाना ही दिख जाए, तो दाने के भीतर का पस मन में उतर आता है कि काश, यह दाना भी फोटोशाप में जा पाता और मैं इस का सत्यानाश कर सकती. पर मन मार कर रह जाती हूं और आईने को दूर पटक देती हूं.
जब कभी कोई अजीब बातें करता है, तो मेरा मन अनायास ही कह उठता है, ‘हे भगवान, इस की प्रोग्रामिंग में इतनी गड़बड़ क्यों कर दी तुम ने।‘ इतना ही नहीं दिमाग से कोई बाद निकल जाती है, तो मैं पलभर के लिए भी दिमाग पर जोर नहीं देती. फट से सर्च फाइल का आप्शन पकड़ लेती हूं, लेकिन एक परेशानी है कि अगर दिमाग से कोई काम की फाइल डिलीेट हो जाए, तो उसका फोल्डर मुझे दोबारा नहीं मिल पाता, क्योंकि मेरे पास कोई रिसाइकिल बिन नहीं है न.
कागजकलम नाम से ही अजीब लगने लगे हैं। यही नहीं, हाथ तो कलम पकड़ना ही भूल गए हैं. सोचती हूं, अपने डिगरी भंडार में एकाध डिगरी और जोड़ लूं, पर कलम की शक्ल देखते ही जी मिचलाने लगता है और उंगलियां कीबोर्ड की दुआ मांगने लगती हैं.
अब क्या करूं ? कहां जाऊं ? यह सोचती हूं, तो फिर से एक विंडो खुल जाती है कीवर्ड की डिमांड करते हुए। इसी के साथ में अपने दिमाग का कंप्यूटर शट डाउन करने से पहले आंखे बंद कर के दिमाग में आ चुके एरर को हटाने के लिए बिना किसी एंटी वायरस के सतत प्रयासों में लग जाती हूं. इसलिए आने वाले हर नए सिस्टम से कहना चाहती हूं कि अपने दिमाग को इस कप्ंयूटर नाम के बडे़ वायरस से बचा कर रखें. यह एक ऐसा वायरस है, जिसे कोई एंटी वायरस हील नहीं कर सकता और दिमाग की हार्ड डिस्क के साथसाथ दिल का मदर बोर्ड भी खराब हो जाता है।
अनिता शर्मा

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

हंसो हंसो जल्दी हंसो

हाय, ये क्या हुआ, ये अप्रैल फूल का दिन एक बार फिर आ पहुंचा है. मेरे पल्ले से तो यह बात दूर है कि कोई आपको पागल कह कर हंसे और आप भी उस के साथ ही हंस दें। साल का एक ऐसा दिन जब आप भी मुर्ख हैं और दूसरे भी सुनने में कुछ अटपटा सा लगात है...
चलो मान लिया जाए कि साल में एक दिन ऐसा है जब सभी अपनाअपना स्वाभिमान तज कर अपने या औरों पर हंसते हैं, तो हम जिन बातों पर पहली अप्रैल को हंसते हैं, वह तो हमारे देश में रोज ही घटती हैं। नेताजी रोज कोई नया झूठ बोलते हैं, लड़के आए दिन लड़कियों को प्रपोज मारते हैं, बच्चे स्कूल से बंक मारते हैं, बेटियां माओं से बहाने बना बाहर जाती हैं या फिर चलतेचलते ऐसे ही किसी को गाले दे दी जाती है.
यह बात चाहे किसी और त्यौहार पर फिट न बैठे, लेकिन पहली अप्रैल पर सटीक बैठती है कि हमारे लिए कोई त्यौहार एक दिन का नहीं होता हम भारतीय हैं हर त्यौहार को हर दिन मानते हैं।अब जरा बताईए तो, क्या रोेज के रोज आप ‘अप्रैल फूल‘ कह कर हंसते रहेंगे ? ऐेसे भला देश का विकास कैसे होगा. विकास के तहत कीमतंे नहीं बढ़ेंगी, तो गरीबों को कैसे पता चलेगा कि देश की तरक्की हो रही है.
इस बार तो सो काल्ड त्यौहार को पूरा देश इसे मनाने वाला है. वह भी चुनाव के रूप में. इस अप्रैल को नेता चाहे कितने ही वायदे करें, जनता चाहे उन से कितना ही फायदा क्यों न उठाए, आखिर में दोनों एक दूसरे को फूल ही कहेंगे. भई कर भी क्या सकते हैं यही तो हमारे लोकतंत्र का रिवाज है और यह अगर अप्रैल माह में आन पड़ा है, तो इसे इत्तफाक ही मानिएगा कुछ और नहीं।
हमारे एक पत्रकार मित्र को ही देखिए गुजरे कल तक तो उन्हें राजनीति नाम के परिंदे से बहुत चिढ़ थी, लेकिन इस बार अप्रैल का फायदा उन्होंने भी उठाना चाहा सो कूद पड़े मैदान में और जब हाथ पैर मारने पर टिकट नहीं मिला, तो नाक मुंह घोंस कर घींघीं कर बोल उठे ‘ देखा, बनाया न सब से बड़ा ‘अप्रैल फूल‘, कोई इतना अच्छा फूल बनाने का तरीका नहीं सोच सकता‘
मेरे एक दोस्त हैं। वे हमेशा ‘अप्रैल फूल‘ का पूरा लुत्फ उठाते हैं. हैं तो वे एक नंबर के दिल फैंक, लेकिन खुद को आधुनिक मानव का तमगा दे रखा है उन्होंने. हर पहली अप्रैल को न जाने कितनी ही लडकियों को आईलवयू बोलते हैं. कोई पट जाए पता तो ठीक है, नहीं तो ‘अप्रैल फूल‘ कह खीखी कर हंस देते हैं. उन की यह बात मुझे तो तनिक भी नहीं हंसाती.
ये तो थी मजाक की बातें, पर हमारे पड़ोसी किशोर जी तो अप्रैल फूल को त्यौहार की तरह पूजते हैं। आप को जानकर शायद अचरज न होगा कि वे इस दिन को धनतेरस की तरह मनाते हैं. अरे, हंस क्या रहे हैं आप. ये जो हमारे किशोर जी हैं वे उन लोगों में शामिल हैं, जिन का धंधा लोगों को पागल बना कर उन्हें लूटना होता है यानी कि ठग. मुझे तो लगता है कि हमारे देश में जिनते भी ठग हैं सभी ने इसी दिन से अपने काम कि शुरूआत की होगी और यही उन का प्रेरण स्रोत रहा होगा.
भाई जान, खबरिया चैनलों के लिए तो यह दिन टीआरपी की चुंबक है. कितने ही चैनल इस दिन अगड़म बगड़म खबरें बना कर पूरा दिन टीआरपी बटोरते हैं. अब तो मुझे भी लगने लगा है कि इस त्यौहार को अगर सेलिब्रेट किया जाता है तो कोई गलत बात नहीं. गलती, हंसी, गुस्सा या कभी भारी खीज को दबाने के लिए इस का नाम भर काफी है. कोई भी बात हो अप्रैल माह में बस कह दीजिए ‘अप्रैल फूल‘.
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