शनिवार, 11 अप्रैल 2009

मेरे गुन-ओगुन गिनों न गोपीनाथ

बस के बारे में मै तो बस इतना ही कहता हूं
किजे चित सोई रहे निज पतितन के साथ मेरे गुनओगुन गिनों न गोपीनाथ
(ब्लू-घोस्ट) मै तो नित यही प्राथना करता हुं किः-
हे! संहारक मेरी रक्षा करना। बचपन से हमें पढाया और समझाया गया कि जीवन का स्वामी उपरवाला है और आज मुझे इस बात का सही मतलब समझ में आया है, आखिर जो गाड़ी आपके उपर से निकलेगी वही तो प्राणो की स्वामिनी होगी। तो हुई ना जान उपरवाले (ब्लूलाइन बस के ड्राइवर) के हाथ में, और साथ ही साथ पैरों में भी कि अगर सही वक्त पर ये ब्रेक नहीं दबाएंगे तो मेरे प्राण पखेरू इस तरह उडेंगें के जैसे उन्हें मेंरा शरीर रूपी पिंजरें में से किसी के पसीने वाले जूतो सी बू आ रही हो और वह खुलें भी पहली बार हो।
कहीं ब्रेक की जगह पर एक्सीलेटर दब गया तो मेरे प्राण उडेगें नहीं बल्कि उनके टायर रूपी कडों में एक और नग की तरह जड जाएंगें। मैं जब भी घर से निकलता हूं तो मेरी यही प्रार्थना होती है कि ऐ परमात्मा इन तेज दौडती इश्वरीयषक्ति वाली वाले ‘‘ मौत के फरिश्तों’’ की एक दूसरे को अधिक से अधिक खून पीने के लिए उत्साहित करती पी-पी की तेज आवाज में अगर मेेरी ये दबी सी आवाज़ सुन पा रहे हो तो मेरा सामना किसी ब्लूलाइन बस से मत करवाना हे! दीनानाथ मेरे मन में भूल से भी कभी किसी ब्लू लाइन बस को ओवरटेक करने का आत्मघाती विचार ना आए और अगर कहीं मै गलती से उन्हें ओवरटेक कर भी जाउ तो तुम उनके दिमाग को ठंडा ही रखना, उनके दिल में प्रतिशोध की भावना का बीज पनपने ना देना, उनके मन का ऐसा विचार मेरे लिए जानलेवा साबित हो सकता है। इस कलयुग मे यह बस के ड्राइवर संसार को सच्चाई का आभास दिलाते रहते है कि भगवान और मौत को कभी नहीं भूलना चाहिए।
पानी मे रहकर मगरमच्छ से बैर अच्छा नहीं, मुझे अभी जीना है। इसलिए सड़क पर चलते हुए मै इनकी इस धमकी को कभी न भूलुगां ‘‘करपा उचित दूरी बनाए रखें’’अन्यथा हमें दोष न दें। वैसे भी इन्होने यह घोषणा कर रखी है कि ‘‘या तो यूं ही चालेगी’’। देख लो भाईजान अगर जान प्यारी है तो इनकी बात मान लों नहीं तो भुल जाओ के जान नाम की भी कोई चिडीया होती भी है। अगर हालात ऐसे ही रहे तो दिल्ली की सड़कों पर होर्डिंग टंगे नजर आएंगे ‘प्लीज कीप अवे फ्रोम ब्लूलाइन बसेज़, एंड सेव योर लाइफ’। ये सोचता हूं कि अगर अरस्तु आज जिंदा होते तो ‘राज्य एक आवश्यक बुराई है ’ वाली अपनी बात को ‘ दिल्ली वालों की मजबूरी है, अभी ब्लूलाइन ज़रूरी है।’ कर लेते शायद आज के संदर्भ में ज्यादा सटीक होती।
भारत मल्होत्रा का यह लेख उन्होंने करीब महीनो पहले लिखा था, किसी अखबार में तो नहीं छप पाया, लेकिन प्रांसगिक आज भी उतना ही है जितना तब था . भारत वर्तमान में क्रिकखबर डाट काम www.crickhabar.com से जुड़े हैं, आप अगर उनसे संपर्क करना चाहें तो उनकी इमेल आईडी है- bharatmalhotra83/gmail.कॉम इसके अलावा उनका ब्लाग भी है जहां आप उनकी अन्य रचनायें kucchbaten।blogspot.com bharatmalhotra-bhanu.blogspot. कॉम देख सकते हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगा भारत जी का लेख.
    बिलकुल प्रासंगिक है. अब तो सड़क पर निकलते हुए भी डर लगता है.

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  2. एक आस लिए जीती हूं, एक प्‍यास जिसे पीती हूं, न जाने क्‍यूं, मन में एक विश्‍वास लिए हूं, फिर भी रीती हूं।..... what a introduction about you ....deepest thinking...
    myself....
    सूखे पत्ते कहाँ गए ? कुछ ख़बर नही । बचपन में बकरियों को खिलाते थे । जिनपर कभी लेटा करते थे । बागों से जिन्हें चुना करते थे ।
    अब कहाँ गए होंगे ? कुछ समझ नही आता । बेचारे !
    क्या सूखे पत्तों की भाँती हम भी एक दिन सुख जायेगे ? क्या हमारा भी वही हाल होगा ? क्या तब हमें कोई याद करेगा ?
    कुछ समझ नही आता ।

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