शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

हर कवि मेरा दुश्मन सा क्यों है...


अगर आप इस ब्लाग पर इस उम्मीद के साथ आए हैं कि यहां आप को कुछ अच्छा पढऩे को मिलेगा, तो मैं आप से माफी चाहूंगी। क्योंकि इस ब्लाग के कर्ताधर्ता आजकल मानसिक विक्लांग्ता के शिकार हो गई हैं। वे किसी तुच्छ प्राणी के मोहपाश में फंस कर सब कुछ भुला चुकी हैं.
इस लिए अच्छे की उम्मीद करने वाले विजिटर से क्षमा चाहती हूं. ब्लाग का सहारा ले कर वे अपने मन की भड़ास को कम करने का काम कर रही हैं... ईश्वर उन की सहायता करे और बेतुकी बातों के लिए आप उन्हें माफ करें...
लोग या तो कृपा करते हैं या खुशामद करते हैं
लोग या तो ईष्र्या करते हैं या चुगली करते हैं
लोग या तो शिष्टïाचार करते हैं या खिसियाते हैं
लोग या तो पश्चाताप करते हैं या घिघियाते हैं
न कोई तारीफ करता है न कोई बुराई करता है
न कोई हंसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत करता है
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफूंदीयायी हुई चीज हो गई है-
रघुवीर सहाय की इन चंद पक्तियों ने मानों संपूर्ण सत्य को प्रकट कर दिया हो। जिस संदर्भ में मैंने इन्हें यहां लिखा है, हो सकता है सहाय जी ठीक उस के विपरीत इसे प्रस्तुत कर गए हों, लेकिन जो भी हो यह पक्तियां कहीं न कहीं हमारे रिश्ते के सच को भी ढ़ो रही हैं या शायद आज के स्वार्थी समाज में पनप रहे हर रिश्ते को।
सच ही तो है स्नेह, प्रेम, त्याग, संवेदनाएं ये सब तो अब बस कवियों के सुंदर प्रतिमानों सी कविताओं की शोकेस में ही नजर आती हैं। विश्वास की जगह अब विश्वासघात ने ले ली है और प्रेम की तुम जैसे भोगी, देह के पुजारियों ने.
फिर भी अकसर हवा के साथ कुछ आवाजें सहसा कान के परदों के पार चली आती हैं। सच्चे प्रेम की आवाजें, विश्वास की आवाजें, जो सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि सच्चाई इस अंधेरी दुनिया में अभी भी किसी कौने में छिप कर सांसे भर रही है... विश्वास भी मरा नहीं है वह उस के ही साथ कहीं है निरंतर ठंड़ास बांधने को...
फिर सहसा सोचती हूं कि अगर सच्चाई है, तो वह सदा रोती ही क्यों रहती है... इस सवाल का जवाब देने आगे आती है मेरे भीतर बैठी मेरी सच्चाई (तुम जिसे मारने की भरसक कोशिशें कर चुके हो) कि शायद सच्चाई को झुठ नजर ही नहीं आ पाता, क्योंकि हर काला झूठ सच का कंबल ओठे रहता है जैसे तुम, हमेशा खुद को निर्दाेष, बेचारा और सच्चा सबित करने में लगे रहते हो। धुमिल की कविता रामकमल चौधरी की कुछ पक्तियां पढ़कर तो ऐसा लगाता है मानों तुम्हारे लिए सालों पहले की गई भविष्यवाणी. जानना चाहोगे वे पक्तियां क्या हैं- 'एक मतलबी आदमी जो अपनी जरूरतों पर निहायती खरा था.'
त तुमने तुमने जो किया तुम जानों, लेकिन मेरी समझ से यह बात परे है कि तुम्हारी करनी की सजा भला मुझे क्यों। गलत तुम थे, धोखा तुमने दिया, विश्वास तुम ने तोड़ा, तो फिर ये सारे कवि हमेशा मेरे जीवन में विरह बादल से क्यों छाए रहते हैं. कोई भी बात या संदर्भ हो ये अपनी किसी न किसी पंक्ति के साथ आ खड़े होते हैं मश्तिष्क के मंच पर अपनी कविता प्रस्तुत करने. अब श्रीकांत जी को ही देख लो, यकायक आ खड़े हुए हैं यहां अपनी इन पक्तियों के साथ, लेकिन मैं भी कम दोषी नहीं हूं अगर वे अपनी कविता सुना कर मुझे दुखी करते हैं, तो भला मैं क्यों खुद को उन की कविता का भाव बना लेती हूं...
मेरे और औरों (तुम्हारे) के बीच
एक सीमा थी
मैंने जिसे छलने की कोशिश मैं ने ओरो (तुम्हारी) की शर्तों पर प्रेम किया।
अब श्रीकांत जी जब औरों की बात कर ही रहे थे, तो बताओ मुझे वहां तुम्हें और स्वयं को छोंकने की क्या जरूरत थी। पर करूं भी तो क्या अब तक जितनी भी कविताएं पढ़ी सब की सब मेरे पीछे पड़ गई हैं, कहती हैं कि मुझ से उन का आत्मीय संबंध है ठीक वैसे ही जैसे एक समय में तुम कहा करते थे, इसलिए ही तो अब उन पर भरोसा नहीं कि कहीं वे भी तुम सी कभी किसी और के साथ खड़ी नजर आएंगी. श्रीकांत की ही कुछ और पक्तियां मानों उन्होंने भी इच्छाओं को करीब से टूटते देखा है...
लेकिन एक बार उड़ जाने के बाद
इच्छाएं लौट कर नहीं आती
किसी और जगह पर घोंसले बना लेती हैं...
हां, महादेवी जी की कविताओं में अकसर अपनापे का भाव पनपता है, लेकिन अज्ञेय जी जिनकी कविताओं से मैं प्राय: उचित दूरी बना कर रखती थी, यह कैसा जुड़ाव है नहीं जानती, शायद यह भी तुम्हारे ही कारण है कि उन की कविताएं पढ़ते वक्त उक्ताने वाली लड़की को उन की कविताओं में अपनी पीड़ा के दर्शन होने लगे...

और घास तो अधुनातन मानव मन की तरह
सदा बिछी रहती है- हरी, न्यौतती, कोई आ कर रौंदे

द देखो देखो न कितनी सार्थक है यह पक्तियां मानों मैं हरी घास और तुम 'कोईÓ। आह, कविता का नाम तो याद नहीं लेकिन कुछ और पक्तियां दिमाग में घूम आई हैं अज्ञेय की...
मैं तुझे सुनूं,
देखूं, ध्याऊं,
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाककहां सहसा
अगर तुम इन्हें अज्ञेय के शब्दों में उकेरी गई मेरी कोरी भावनाओं का नाम दो, तो कुछ गलत न होगा। इसी कविता में उन्होंने कहा है 'छू सकूं तुझे, तेरी काया को छेदÓ सच पहले कभी मैंने अज्ञेय को अपने इतने करीब न पाया था. अरे उन की क्षणिका भी याद हो आई 'सांपÓ. याद तो होगी ही तुम्हें... पहली बार तुम्हें मैंने ही सुनाई थी, आफिस के जीने में... पर तब तुम ऐसे नहीं थे. क्या जानती थी नादानी में तुम्हें जो कविता सुना रही हूं एक दिन तुम उसे यूं अंगिकार ही कर लोगे...

महादेवी जी के बारे में क्या कहूं उन की कविताएं तो मानों मेरे भीतर कहीं घर बना कर रहती हैं. हर परिस्थिति में उन की कोई न
कोई कविता मुझे घेरे ही रहती है. पर दो कविताओं की तीन पक्तियां तुम तक पहुंचाना चाहती हूं
पहली-दूर तुमसे हूं, अखंड सुहागिनी भी हूं।

दूसरी और तीसरी-
तुम मुझमें अपना सुख देखो, मैं तुम में अपना दुख प्रियतम।

जातनी हूं कि तुम्हारा सच क्या है, लेकिन क्या करूं कभी उसे स्वीकार नहीं पाती। लगता है तुम वही हो, जिससे मैंने प्रेम सूत्र जोड़ा था, ये नया चेहरा तुम्हारा नहीं एक भ्रांति है. पर सच तो यह है कि तुम बदल गए हो. अरे नहीं तुम बदले कहां हो, तुम तो अपने सही रूप में हो... वैसे ही नीच जैसे तुम भीतर से हो. हां, कुछ दिनों के लिए तुमने कलेवर जरूर बदला था. ओह, फिर से वही पक्तियों के घेराव. इस बार पंत की कुछ पक्तियां हैं 'आह, सब मिथ्या बात...Ó कविता का नाम याद नहीं है शायद परिवर्तन है. लेकिन हां, परिवर्तन की कुछ और पक्तियां हैं...
शून्य सांसों का विधुर वियोग
छुडाता अधर मधुर संयोग
मिलन के पल केवल दो चारआह, विरह के कल्प अपार

इन पक्तियों में पंत जी ने आह नहीं लगाया, लेकिन जब मैंने इन्हें पढ़ा, तो आह स्वत: ही ओठों से फूट पड़ा। मिलन के पलों से कुछ और पक्तियां भी याद हो आई, लेकिन नहीं जानती कि किस ने लिखी हैं और किस कविता से हैं बस याद हैं. हो सकता है कि इन में कुछ गलती भी हो, लेकिन भाव वैसा ही शुद्ध है...
बालको सा मैं तुम्हारे वक्ष में मुंह छिपा करनींद में डूब जाता हूं
बस अब और नहीं, मेरा यह चि_ïा कभी खत्म होने का नाम नहीं लेगा, ये कविताएं, तो कभी पीछा छोडेंगी नहीं, इसलिए मुझे ही हाथ को रोकना होगा. लेकिन सुनो कहने को बहुत कुछ है मेरे पास, कभी सुनने वाले बनों, तो जानूं...
अनु

11 टिप्‍पणियां:

  1. अनीता जी.. आप वैसे ही कवि और कविता के पीछे पड़ गईं आखिर आपने भी इतना खूबसूरत लेख किसी के मोहपाश में पड़ने के बाद ही लिखा... जिसमें आपने मन की सारी भावना उड़ेल कर रख दी। कवि भी तो भावनाओं से लबरेज़ होते हैं.. और उनका दर्द भी काल्पनिक नहीं होता.. बड़े दर्द देती है ये दुनिया। और हां ये तो बताईये कि आप किसके मोहपाश में पड़ गई हैं।

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  2. आपने ऐसी ऐसी विलक्षण कविताओं का चुनाव किया है अपने इस आलेखे में की क्या कहूँ...वाह...आनन्द आ गया...आप की भाषा और भाव दोनों कमाल के लगे...आपको पढना एक सुखद अनुभव रहा...
    नीरज

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  3. मानसिक विकलांगता में ऐसा लिखा जाता है तो स्‍वस्‍थ स्थिति में क्‍या होगा? जिसने भी आपके दिल और दिमाग पर कब्‍जा किया है उसे हमारी शुभकामनाएं। आप ऐसा ही लिखती रहें।

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  4. दुश्मन कैसे हो कवि जिनके कोमल भाव।
    कथ्य बहुत बेजोड़ है छोड़े अलग प्रभाव।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  5. फ़ांट जरा बढा दीजिए !
    हमारे ब्लॉग पर एक गज़ल पढिए कुछ इससे मिलती-जुलती !

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  6. Anita jee aapka lekh bahut achha hai bhavnayen bhi behtrin hain, lekin ek baat kahna chunga agar aap bura na mane to. Jeevan main dukh har kisi ko hota hai 'nanak dukhiya sab sansar' zaroorat hai apna nazriya baladne ki. Ek aadmi ne jo galat kiya uski bharpayi hona mushkil hai lekin zindgi ke ghamon ko bhulakar khushiyon ki talash ki jayen. Aage aap khud samajhdar hain

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  7. अनीता जी !!! आप जहां भी हैं, उम्मीद करता हूँ सकुशल होंगी । आपकी इस रचना ने मुझे भेद कर रख दिया है...लगता है मेरा दर्द आपने अपनी दर्द भरी रगों की लेखनी से लिख दिया हो । ...उम्मीद है आप स्वस्थ होंगी ...जल्द फिर से लिखना शुरु कीजिए ।

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  8. bahut achhi rachna, dardanak, marmik our soundaryapurn.......kuch our likhate nahi banata....off....

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  9. अत्यंत भावनात्मक तरीके से लिखा गया है। पर बहुत ही अच्छा लिखा है। उम्मीद है कि अगले लेख की जानकारी देंगी आप।

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